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पंचिंगबैग - सुरेखा अग्रवाल"स्वरा" उत्तरप्रदेश

पंचिंगबैग 


      कहते है , वेदनाओं के साथ पीड़ाएं,, मौन के साथ संबोधनों कीचीखे, वही बदलते मूड़ के साथ सबको आत्मसात करने की जद्दोजहद, उम्र पर हावी होती अनुभवों की भारी लकीरें, और इसी तिलसिम में कैद होती अनेक हसरतें।

पंचिंग बैग से हम हर वार सहते बस ताउम्र इसी डर में जीते औऱ उस मार को सहते रहते है कि रिश्तों की डोर हाथ से फिसल न जाए,पकड़ ढीली न हो जाए बस इसलिए थामे रहते है उसका आख़री छोर मजबूती से,पता ही नही चलता  कब हथेलियों से खून रिसता हुआ वहां का घाव क्लॉट बन जाता है।

फ़िर वह आदत में आ जाता है  वह ज़ख्म, क़भी ठीक होता तो क़भी नम होता क़भी फफूंद के साथ मुस्कुराता हुआ बन जाता है क़भी न भरने वाला दर्दनाक नासूर।

वो क्या है न? हम ही जिम्मेदार होते है इन नासुरो के लिए,हम रिश्तों को अपनाते है मन से,स्वीकृत करते है  दिल से,पर अगला हमे परख रहा होता है स्मित मुस्कान लिए हुए।हम निश्छल मन से उसे अपना पूरा ज़ेहन, जी हाँ ज़ेहन ,दिमाग उसे दे डालते है।

औऱ यही से शुरू होता है  हमारा अंत जिसके कसूरवार हम ही होते है।

अनुभव है रिश्तों का होश संभाला है तबसे

सम्बन्धों  की परिपाटी को निभाते देखा था मां को  वे कहती थी कि,आप दिल ज़िगर मन सब स्वेच्छा से हवाले कर देते है, औऱ यही स्वेच्छा हमारा अंत तय कर देती है।

 अगला हमे बस आंखों से,बातों से कम हरकतों से हर पल  ख़त्म करता रहता है, शातिर दिमाग़ किसी परपंच में नही फंसता क्योंकि आप की हर बात का जवाब उसके पास होता है"आपने तो कहा था"

"उसने ही कहा था"

"वो कह रहा या कह रही थी"

बस इन्ही श्लोगन सङ्ग बगैर वज़ह जाने भर दी जाती है बाते अपने अपने तरीक़े से हर वो बात  जहां हमारी कमज़ोर नस या दुखती  रग होती है।पंच वही मारा जाता है।न उफ़्फ़ न  हाय्य।

बस मौन  शोर की चीख

यह रिश्ते, यह नाते  सब आडम्बर है रोता मन बस यही कहते हुए अपने अंदर युद्ध पर युद्ध लड़ता रहता है औऱ  एक दिन सड़े हुए रिवाज़ो के सङ्ग मर जाता है,एक सजा बदलाव की साथ ही साथ एक ठोस वजह चाहकर भी हम सबूत नही दे पाते क्योंकि अनर्गल सोच और बातों का कोई पैमाना और न ही सबूत होता है ।  

बेशक़ बदलाव जरूरी है पर सम्बन्धों के संबोधन हो या रिश्तों की सीढ़ियां औऱ उनके पायदान को बदलने की कोशिश में जब हम बदलाव लाने की कोशिश करते है तो उसमें  पहले हमारी बलि चढ़ती है ।

#भई_रिवाज़ों_को_बदलने_की_गलती_हमने_ही_तो_की?

कहते है बुनियाद को हिलाने की क़भी कोशिश  नही करनी चाहिए,क्योंकि जब जड़े हिलती है तो   विनाश होना  लाज़मी,

पुराने लोग कहते थे न कि

बराबरी के रिश्ते बराबरी मे ही फलते फूलते है

एक  स्त्री और पुरूष कभी दोस्त  नही बन सकते।

हरेक रिश्ते की अपनी  गरिमा   होती है   क्योंकि ओहदे अनुशासन बनाते है। नियम बनाते है और साथ ही साथ परिवार के अपने  कायदे  भी।

जब रिश्तो के पेड़ को उन्हीं  की टहनियों पर बैठ कर हम काटते है तो गिरते भी हम है।

पंचिंग बैग मज़बूती  की मिसाल है तो उसे उसी तरह इस्तेमाल में लेकर आये न कि हम पंचिंग बैग बनकर हर वार सहते रहे। याद रहे पंचिंग बैग का वार चूक जाए तो रिवर्स में वह जो पंच  आप पर लगेगा तो पूरा अस्तित्व धराशाई आपका होगा,तो दोनों केस में संभलना आपको ही है।

रिश्ते  पंचिंग बैग  नही है

औऱ संबोधन हो या सम्बंध मूड़ की फ्रीक्वेंसी से नही चलते न ही बढ़ते है।

 षड्यंत्र रिश्तो में परिवार में नही रचे जाते क्योंकि परिवार ही अपना होता है और उसका हर रिश्ता श्वाश, जहाँ श्वाश रुकी परिवार  का एक अंग थम जाता है। वह दिव्यांग हो जाता है, अधूरा सा।  क्योंकि परिवार की

बागडौर सबके हाथ होती है उसे सब मिलकर चलाते है।

 सबकी सहमती से सहमती  ।

जहां परिवार मे भेद किसी एक के प्रति आया तो   नींव वही से कमज़ोर होने  लगती है ,ध्यान देने वाली गंभीर बात👇👇

अगर आप परिवार या रिश्तों को पंचिंग बैग समझने की भूल कर रहे है तो रिवर्स गियर  आपकी तरफ़  तेजी से बढ़ रहा है। 

 संभलिए  औऱ संभालिए

 हैंडल विथ केअर

But Don't take any Relation as Granted


क्योंकि सावधानी हटी

दुर्घटना घटी

सोच आपकी ,नजरिया आपका


 - सुरेखा अग्रवाल"स्वरा"

उत्तरप्रदेश

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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