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कहानी : सुहागन - मंजु लता , नोएडा


 कहानी : 

सुहागन 

    सुबह के आठ बजे थे। रमा के घर उसकी काम वाली बाई का अब तक पता नहीं था। वैसे भी दो दिनों से वह नहीं आ रही थी। रमा के ऊपर काम का काफ़ी बोझ पड़ रहा था इसलिए रमा बहुत चिड़चिड़ा रही थी। आठ बज के तीस मिनट पर बच्चों को स्कूल पहुंचना होता था। नौ बजे तक पति को दफ़्तर जाना होता था। स्वयं उसे दस बजे कालेज पहुँच जाना आवश्यक होता था। वह घबड़ाई हुई थी कि अकेले कैसे सब करेगी। खैर किसी तरह उसने पति और बच्चे को तो भेज दिया। अपने लिए समय कम पड़ रहा था। इतने कम समय में नहाना, तैयार होना, घर को समेटना, और बंद करना कठिन था। अतः उसने सोचा कि वह क्यों न दूसरी व्यख्याता को कह दे कि उसके बदले वह क्लास ले। ऐसा सोच कर उसने शीला मैडम को फोन लगाया और अपने मन की बात कह डाली। शीला ने कहा----अरे!ये कौन सी बड़ी बात है। मैं मैनेज कर लूंगी। तू बेफिक्र हो कर देर से आना।

          रमा ने राहत की सांस ली। साथ ही बड़बड़ करती जा रही थी कि जैसे ही कामवाली सुशीला आएगी, वह खूब डांटेगी और कहेगी, अगर उसके नागा करने का यही रवैया रहा तो उसे काम पर नहीं रखेगी।

          ऐसा सोच ही रही थी कि कॉल वेल बज उठा। उसने दरवाजा खोला तो देखा सुशीला खड़ी थी। चेहरा सूजा हुआ था। आँखों के आगे काला पड़ा था। ब्लाउज भी फटे थे। लग रहा था रात को वह बहुत रोई थी। उसकी हालत देख रमा का गुस्सा ठंढा पड़ गया। उसने कहा------

"अरे!ये सब क़्या है सुशीला? किसने ये हाल किया।"

सुशीला-------" वही हमरा मरद और कौन।" 

हर दो चार दिन में ऐसे ही मारता है। शराब पी कर आता है, मारपीट करता है। अपनी सारी कमाई दूसरी औरत को दे आता है, और मेरा पैसा भी खोज-खोज कर निकाल लेता है। हम मेहनत से कमाते हैं और वह सब उड़ा देता है। हम तो परेशान हो गए हैं, समझ नहीं आता क़्या करें। कब तक सहते रहें।

रमा ने kaha------" तुम तलाक क्यों नहीं दे देती हो? वैसे भी तुम अपनी कमाई से खाती-पीती हो, अपने पैरों पर खड़ी हो फ़िर क्यों सहती हो?। "

तुम्हारा पति भी तो दूसरी औरत को रखे हुए है। तुम क्यों माया में पड़ी हो।

सुशीला-------"कैसी बात करती हैं भाभी जी। कल हो के हमरा बेटवा बाप को खोजेगा तो हम कहाँ से लाएंगे। बाप बिना टूअर हो जाएगा। और तो और हमारा समाज दोषी हमको ही मानेगा। उसका करतूत कोई नहीं जान पायेगा। दूसरों के सामने बड़ा शरीफ बना रहता है। "

रमा----"अच्छा!तो तुम्हें उसका मार खाना और गाली खाना पसंद है। ये तो सरासर घरेलू हिंसा है। तुम इसके विरोध में थाने जा सकती हो। पुलिस तुम्हारी मदद करेगी।

सुशीला------"न बाबा न। अपने ही पति के खिलाफ़ रपट लिखवाने में भला शोभा देगा क़्या?आखिर अच्छा है या बुरा है तो मेरा पति। अपने हाथों अपने सुहाग का सर्वनाश कैसे करें। उसके नाम का ही मंगलसूत्र पहनती हूं, सिंदूर से मांग भरती हूँ। सुहागन कहलाती हूँ।"

                    रमा को उसकी बातों को सुन कर गुस्सा आ गया। वह बोली-----"कोई फ़ायदा नहीं है तुम लोगों को समझाने का।

घरेलू हिंसा को बढ़ावा तुम्हारे जैसी ही औरतें देती हैं। जाओ जो मर्ज़ी सो करो। मैं भी कहे देती हूँ आइन्दा ऐसे ही नागा (absent) करती रहोगी तब मुझे मजबूरन तुम्हें काम से हटाना पड़ेगा। मैं किसी और को रख लूंगी। "

सुशीला अपनी बात पर अड़ी रही। नौकरी से ज़्यादा उसे अपने सुहाग को बचाना उचित लगा।

रमा ------"अब मैं क़्या कर सकती हूँ। नारी मन ही ऐसा होता है, एक बार किसी से मुहब्बत या लगाव हो जाता है तो अंतिम सांस तक उसी का हो कर रहती है।

 - मंजु लता , नोएडा

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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