काव्य :
विभोर
लौट आया है जीवन जैसे सुंदर
खोया कोना वह सुखद अनूप;
छलक उठा आल्हाद हृदय का
पा कर पुनः निसर्ग रुप प्रभुत्व।
चंद्र किरणें धवल रुप ले कर
हैं उतरतीं जब पूनम की रात;
मिलता नीरव एकांत में बैठने
कह पाने उनसे मन की बात।
मिलने को आतुर है वसुधा से
झुका हुआ क्षितिज पर अंबर;
उड़ें रजत फलक घन बन कर
पर्वत शिखर हरित हैं प्रांतर।
बह कर मंद पवन मन छू जाये,
हो कर स्वछंद ओढ़नी लहराये;
अल्हड़ जीवन षोडष वय लौटा
बीतीं यादें तीतिल पंख लगाये।
जिसे ढ़ूंढ़़ती पा लेने अब तक
साक्षात रतिहार यहाॅं खड़ा है;
मेरे हिस्से का कर रहा प्रतीक्षा
आह! सुरम्य वह यहाॅं पड़ा है।
मन मंदिर है हो उठा निनादित
सज गई संध्या पूजा की थाली;
पूजा अर्चन करने को श्रृंगारित
पुष्प माला गुंथ लाया है माली।
सुन सुमुखी देना संदेश जा कर
मेरे प्रियतम परदेशी साजन को;
दिखा जाये मुझे चंद्र मुख अपना
आ कर इस पर्वत गंध मादन को।
सुरम्य प्रकृति में आ कर खोई है
है हो गई आनन्द विभोर मानसी।
टूट न जाए सब्र प्रतीक्षा से पहले
*करे चकवी प्रिय चकोर वापसी।*
*करे चकवी प्रिय चकोर वापसी।।*
-अंजनी कुमार'सुधाकर' , बिलासपुर