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समीक्षा : 'कमल कुंज के मधुकर' – एक संग्रहणीय पुस्तक - प्रीति मिश्रा वरिष्ठ कथाकार गुरुग्राम


 समीक्षा : 

'कमल कुंज के मधुकर' – एक संग्रहणीय पुस्तक

    शकुंतला मित्तल की पुस्तक “कमल कुंज के मधुकर”  वागीश अंतरराष्ट्रीय संस्था, यू ए ई की प्रकाशन एवं सम्मान योजना के अंतर्गत चयनित और प्रकाशित हुई है।जब से हाथ में आई है, न जाने कितनी बार उसे पढ़ चुकी हूँ   । 

 इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे स्वयं उनसे ही बातचीत कर रही हूँ। उनके भाव, उनकी भाषा दिल- दिमाग़ पर सीधे असर कर रहे हैं, यह उनसे परिचय की प्रगाढ़ता है अथवा उनके लेखन का जादू, आप पढ़िएगा और बताइएगा।


वाकई  उनकी कविता बोलती है …….


तुमने बात  प्रीत  की छेड़ी, दर्द पुराना सिहर गया। 

खुल गईं गाँठें अंतस की  सब, नेह कटोरा बिखर गया। 


मृदुल भावों का  एक उदाहरण -  


तुमने मुझको  मुझसे छीना, हँसकर मैंने स्वीकार किया। 

बँध कर बाँहों के घेरे में, जीवन तुम पर वार दिया। 


या फिर ये पंक्तियाँ पढ़िए -  


खुशियों की  चाबी थी अम्मा, 

हाथ छुड़ा कर चली गई। 

बिन बोले हम सबके मन की, 

पढ़ लेती थी बातें वो। 

शुद्ध आचरण से अपने 

भर  देती थी आदर्शों को। 

आज बँट गए हम खण्डों में, 

लगता किस्मत छली  गई। 


कवि हृदय शकुंतला मित्तल जी प्रकृति के एक-एक पल का आनंद लेते हुए अपनी काव्य रस धार में पाठकों को भिगोती हुई चलती हैं। उनका भाषा सौंदर्य - उपमा, उपमान, रूपक, अनेक अलंकारों को समाहित करते हुए पढ़ने वाले को आश्चर्य से भरता चला जाता है।


दूर तलक लगता बरसे हैं, नभ से चाँदी सोना।

तरु पल्लव ने पाया है, सुंदर रूप सलोना।

विजन हिलोरें ले भरता है प्राणों में उच्छवास।

नृत्य चपल करती यह बेला हरती सब संत्रास।

उन्नत शिखर अचल ने अपने, उर-पट को छलकाया।

ले चुंबन उषा के सुंदर, गालों को दहकाया।


पहले भी प्रकृति के चितेरे कवियों ने मधुकर को विशेष स्थान दिया है किंतु आपकी कविता में उसकी जो यात्रा कही है, वह अपने आप में अद्भुत है। आप पहले माहौल बनाती हैं फिर अपनी बात कहती हैं: - 


कच्चे मीठे दूध के रंग के

धवल कमल मन को ठंडाए। 

माँ  शुभा का देख कर आसन

श्रद्धा से मस्तक नयन झुक जाए।


 थाम हरित पत्रों के करों को

 जंगल में शांत विचरते थे

 मोहित और सम्मोहित करते

 हृदय अनुराग से भरते थे।


सिर्फ प्रकृति की गोद में बैठकर कवयित्री कविता, गीत नहीं लिखती बल्कि आज हो रहे प्रकृति के प्रति अत्याचार ,दोहन से वह नाखुश है, चेतावनी भी देती हैं साथ ही दुखी भी दिखती हैं। कवि धर्म और फर्ज पूरी तरह से निभाती हैं आप। कविता की यह  बानगी देखिए: - 


घर आंगन में नीम नहीं है

कृषि के लिए जमीन नहीं है 

धरती कटी फटी है सारी 

सर्वनाश की पूरी तैयारी

वन बाला कंटक बो रही है

माँ प्रकृति रो रही है।


या फिर निम्न पंक्तियों को देखें - 


जीवन के सब तत्व नष्ट कर, शान से इठलाते हम।

वृक्ष कटे ना रही हरियाली ,सपनों का हुआ विसर्जन।


शकुंतला मित्तल एक कवि होने के साथ-साथ  शिक्षाविद भी हैं  और समाज सेविका भी। उनके ये दोनों रूप उनके काव्य में साक्षात परिलक्षित होते हैं।


 क्या होगा भविष्य हमारा, चिंता घेरे अनजानी‌

 वसुधा झुलस रही है, मेघा बरसाओ तुम पानी। 

 जिद न करो उदार बनो, अब छोड़ो भी मनमानी।


प्रकृति प्रेम के अलावा शकुंतला जी की रचनाएँ विविध विषयों को अपने अंदर समेटे हुए हैं ,जो उनके गहन एवं विशद अध्ययन की ओर इंगित करता है।

उन्होंने अपने प्रत्येक अनुभव को बखूबी लिखा है और साथ ही साथ हर रिश्ते को सुंदर जामा भी पहनाया है। वह जैसा सोचती हैं वैसा ही लिखती हैं। चाहे उनकी कविता माँ  पर है या पिताजी पर या अपने पोते पोतियों के ऊपर -  प्रेम में डूबी उमगी हुई भावनाएँ जब उनकी कलम से निकलती हैं तो बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। ऐसा लगता है कि सारे रिश्ते कोमलता के साथ सामने आकर खड़े हो गए हैं।

कवयित्री का एक पक्ष यह भी है कि वह किसी भी विषय पर लिखने से नहीं कतराती है।

रचनाओं में लय के साथ जो बहाव है वह वर्षों का संचित ज्ञान है । गीतों में  अपनी बात रखती आपकी पंक्तियाँ पाठकों को गुनगुनाने पर मजबूर कर देती हैं।

आज के युग में जब अतुकांत कविता मुख्य धारा की कविता के रूप में स्थापित हो चुकी है और अपनी बात पाठक तक सीधे-सीधे पहुंचा सकती है, कहीं न कहीं तुकांत और छंदोबद्ध कविता के साथ अन्याय भी हुआ है क्योंकि उसे सीखने के लिए कठिन अनुशासन की आवश्यकता होती है।  मेरा व्यक्तिगत विचार है कि अतुकांत कविता एक नवांकुर कवि के लिए आसान रास्ता है, जिससे परम्परागत कविता का क्षरण हो रहा है। हर कवि को पहले कविता के शास्त्रीय रूपों को समझना चाहिए, अभ्यास करना चाहिए, फिर अपने काव्य लेखन के लिए उपयुक्त रास्ता चुनना चाहिए। शकुंतला जी ने अपनी कविता के मार्ग को अध्ययन, श्रम और अनुशासन के माध्यम से चुना है। 


'कमल कुंज के मधुकर' में कहीं भी तुकबंदी या मात्राओं के गठजोड़ में असली बात कहना मुश्किल हो ऐसा नहीं लगता, बल्कि पाठक उनको मनन करने पर मजबूर हो जाता है। यही इस काव्य को श्रेष्ठ बनाता है, आज के समय में इस अभ्यास की ही आवश्यकता है।


साहित्य में जिन नौ रसों की बात की गई है ,शकुंतला जी की पुस्तक में वे नव रस विद्यमान हैं। शकुंतला जी एक युवा मन रखती हैं, उनकी कविताओं में देश प्रेम है, भारत की नारियों के गुणगान हैं, कहीं शहीद की पत्नी का दर्द है, कहीं संयोग और वियोग शृंगार है।  इन कविताओं का तुकांत होना या गेय पद्धति में होना पठन के आनन्द बढ़ाता है।

अगर किसी को पद्य रचना सीखनी है तो उसे कमलकुंज के मधुकर अवश्य पढ़नी चाहिए।

---- प्रीति मिश्रा

वरिष्ठ कथाकार

गुरुग्राम

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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