काव्य :
हरा आतंकवाद
मनुष्य मात्र का नाश नहीं
पर्यावरण का विनाश भी
है आतंकवाद
जीवन का संकट
धरा बन रही मरघट।
हरियाली को काटकर
बंदर सा बांटकर
उठाते हैं ठेके पर।
कंक्रीट-पत्थर चुनकर
प्लास्टिक से भरती
गगनचुंबी इमारतें।
पर्वतों को छेदकर
बिछती सुरंगें
सागर की आंतों में
दौड़ते जहरीले यान।
सूर्य का ताप कम पड़ा
जो नभ को जलाया भट्ठी-सा
कभी अग्नि वर्षक शस्त्र
कभी राकेट के ज्वाल से?
कबतक चलेगा
प्रकृति का नाश
हरा आतंकवाद
इसे समूल मिटाना
अर्थात
धरती को सुखमय बनाना।
-डाॅ. सुधा कुमारी
नई दिल्ली
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