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[प्रसंगवश – 25 जून: आपातकाल की घोषणा / संविधान हत्या दिवस] - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी


 [प्रसंगवश – 25 जून: आपातकाल की घोषणा / संविधान हत्या दिवस]

संविधान पर लगे ताले: 1975 का आपातकाल

[लोकतंत्र की काली परीक्षा - स्वतंत्रता से अधिनायकवाद तक: 21 महीने की घुटन]

       25 जून 1975 की रात कोई मामूली रात नहीं थी—यह वह घड़ी थी, जब स्वतंत्र भारत के मस्तक पर अमिट काला धब्बा लगा। यह वह पल था, जब लोकतंत्र की नींव डगमगा उठी, और करोड़ों भारतीयों के सपनों को सलाखों में जकड़ दिया गया। सत्ता के गलियारों में लिया गया एक फैसला न सिर्फ संविधान को ललकारता था, बल्कि भारत की आत्मा को लहूलुहान करता था। यह आपातकाल की घोषणा थी—एक ऐसा निर्णय, जिसने अभिव्यक्ति को कुचल डाला, स्वतंत्रता को बेड़ियों में जकड़ा, और जनता की आवाज को क्रूरता से दबा दिया। उस रात भारत ने देखा कि कैसे एक जीवंत लोकतंत्र, चंद घंटों में निरंकुशता की काली छाया में समा सकता है।

आपातकाल की कहानी महज एक तारीख या घटना नहीं, बल्कि एक गहन राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक संकट का चरम थी। 1970 के दशक के मध्य में भारत आर्थिक अस्थिरता, बेरोजगारी, आसमान छूती महंगाई और व्याप्त भ्रष्टाचार की आग में झुलस रहा था। जनता का आक्रोश सड़कों पर उमड़ रहा था। इस बीच, जयप्रकाश नारायण (जेपी) ‘संपूर्ण क्रांति’ के नारे ने इस असंतोष को एक जनांदोलन का रूप दे दिया, जो सत्ता के खिलाफ देशव्यापी विद्रोह का प्रतीक बन गया। दूसरी ओर, 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, जिसने इंदिरा गांधी के 1971 के रायबरेली चुनाव को अवैध ठहराया, ने उनकी सत्ता को सीधे चुनौती दी। राजनीतिक अस्थिरता और व्यक्तिगत संकट का यह तूफान आपातकाल की भूमिका रच गया। यह वह दौर था, जब सत्ता का अहंकार लोकतंत्र पर भारी पड़ गया, और भारत ने अपनी आजादी की कीमत को सबसे काले अध्याय में महसूस किया।

25 जून 1975 की रात, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा करवाई—एक ऐसा कदम, जिसने भारत के लोकतांत्रिक इतिहास को अंधेरे में धकेल दिया। आधिकारिक तौर पर इसे ‘आंतरिक अशांति’ का हवाला देकर लागू किया गया, पर हकीकत में यह सत्ता के सिंहासन को बचाने की नंगी रणनीति थी। रातोंरात संविधान के मौलिक अधिकार—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यक्तिगत आजादी, और संगठन बनाने का हक—छीन लिए गए। प्रेस पर लोहे की सेंसरशिप की बेड़ियां डाल दी गईं; समाचार पत्रों को सरकारी मंजूरी के बिना एक शब्द छापने की इजाजत नहीं थी। कई अखबारों ने विरोध में अपने पन्ने खाली छोड़ दिए, जो उस दौर के मूक लेकिन सशक्त विद्रोह का प्रतीक बन गए। यह रात न केवल सत्ता के अहंकार की गवाही थी, बल्कि लोकतंत्र के गला घोंटने की क्रूर साजिश का भी जीवंत दस्तावेज थी।

आपातकाल की पहली सुबह सूरज उगा, मगर लोकतंत्र पर अंधेरा गहरा चुका था। रातों-रात विपक्षी नेताओं पर सत्ता का हथौड़ा चला—जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे दिग्गजों को बिना अपराध जेल की सलाखों में ठूंसा गया। आधिकारिक आंकड़े चीख-चीखकर बताते हैं कि करीब 1.4 लाख लोगों को बिना मुकदमे के हिरासत में डाल दिया गया। मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (एमआईएसए) को हथियार बनाकर असहमति की हर आवाज को बेरहमी से कुचल दिया गया। नौकरशाही और पुलिस तंत्र सत्ता के गुलाम बन गए, सरकार के इशारों पर नाचने लगे। न्यायपालिका भी दबाव की बेड़ियों में जकड़ी थी—1976 का सुप्रीम कोर्ट का एडीएम जबलपुर फैसला, जिसमें हिरासत के खिलाफ अपील का अधिकार छीन लिया गया, इस काले दौर का सबसे शर्मनाक और विवादास्पद दाग बन गया। यह वह समय था जब सत्ता का अहंकार हर संस्था को रौंदता हुआ, भारत की आत्मा को लहूलुहान कर रहा था।

इस कालखंड में सत्ता का एक नया केंद्र उभरा — इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी। बिना किसी संवैधानिक पद के, उन्होंने देश की नीतियों को अपने इशारों पर नचाया, मानो लोकतंत्र उनका निजी साम्राज्य हो। उनकी तथाकथित ‘पंचसूत्री’ योजना और क्रूर नसबंदी अभियान ने देशभर में दहशत का आलम पैदा कर दिया। सरकारी आंकड़े चीखकर बताते हैं कि 1975-77 के बीच करीब 83 लाख नसबंदी ऑपरेशन किए गए, जिनमें से अधिकांश जबरन और अमानवीय तरीकों से थोपे गए। दिल्ली के तुर्कमान गेट जैसे इलाकों में झुग्गी-झोपड़ियों को बुलडोजरों से रौंद दिया गया, जिसने हजारों गरीबों को बेघर कर सड़कों पर ला पटका। यह सब ‘राष्ट्रीय अनुशासन’ और ‘जनसंख्या नियंत्रण’ के झूठे आवरण में किया गया, पर हकीकत में यह सत्ता के अहंकार और दुरुपयोग का घिनौना प्रदर्शन था। संजय गांधी का यह अनियंत्रित शासन लोकतंत्र पर एक तमाचा था, जिसने भारत के आमजन की आत्मा को कुचलकर रख दिया।

25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक के 21 महीनों के आपातकाल ने भारत को एक ऐसे देश में तब्दील कर दिया, जहां डर और खामोशी की काली छाया ने हर दिल को जकड़ लिया था। सत्ता का लोहा हर सांस पर भारी पड़ रहा था, मगर इस घनघोर अंधेरे में भी उम्मीद की किरणें चमक रही थीं। भूमिगत आंदोलन चलाने वाले नन्हे-नन्हे कार्यकर्ताओं, जेल की सलाखों में कैद साहसी नेताओं, और चुपके से सच की आवाज बुलंद करने वाले पत्रकारों ने लोकतंत्र की लौ को कभी बुझने नहीं दिया। जब मार्च 1977 में आपातकाल का काला पर्दा हटा और आम चुनाव का बिगुल बजा, तो जनता ने अपनी ताकत का ऐसा तूफान खड़ा किया कि सत्ता के गलियारे हिल गए। इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी को ऐसी करारी हार मिली, जो इतिहास के पन्नों में अमिट बन गई। विपक्षी दलों के गठबंधन जनता पार्टी ने सत्ता की बागडोर संभाली, और मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में ताज पहना। यह जनता की ऐतिहासिक विजय थी—एक ऐसा शंखनाद, जिसने साबित कर दिया कि लोकतंत्र की जड़ें भले ही झकझोर दी जाएं, पर उन्हें उखाड़ना असंभव है।

आपातकाल का यह काला अध्याय आज भी हमारे मस्तक पर चेतावनी की तरह अंकित है। यह हमें दोटूक सिखाता है कि लोकतंत्र कोई स्थिर व्यवस्था नहीं, बल्कि एक अनवरत संघर्ष का नाम है। यह तभी सांस लेता है, जब नागरिक सजग रहें, संस्थाएं स्वायत्त हों, और असहमति की आवाज को इज्जत बख्शी जाए। आपातकाल ने सत्ता के केंद्रीकरण और अनियंत्रित शक्ति के भयावह चेहरे को उजागर किया, जो लोकतंत्र की आत्मा को कुचल सकता है। आज, 21वीं सदी के दौर में, जब विश्व भर में लोकतांत्रिक मूल्यों पर तलवारें लटक रही हैं, यह इतिहास हमें गर्जना करता है—स्वतंत्रता अनमोल है, इसे हल्के में लेना अपने पतन को न्योता देना है।

25 जून 1975 की वह रात अब केवल एक तारीख नहीं, बल्कि इतिहास का एक ज़ोरदार आह्वान है, जो हमारी अंतरात्मा को झकझोरता है। उस रात भारत सरकार ने आपातकाल की घोषणा की थी, जिसे आज हम "संविधान हत्या दिवस" के रूप में स्मरण करते हैं—एक ऐसा दिन, जो 1975 के अंधेरे दौर की याद दिलाता है और लोकतंत्र के अमूल्य महत्व को उजागर करता है। यह हमें चेताता है कि लोकतंत्र कोई उपहार नहीं, बल्कि हर नागरिक के रक्त और साहस से सींचा गया अमर वटवृक्ष है। जब तक जनता का हौसला बुलंद है, जब तक सवालों की तलवारें चमकती हैं, तब तक कोई तानाशाही सत्ता लोकतंत्र की गरिमा को रौंद नहीं सकती। उस रात की काली चुप्पी को भूलना नहीं, बल्कि उसे हर साँस में महसूस करना है—ताकि भारत का भविष्य अनघट स्वतंत्रता की रोशनी में नहाया, अटल और अनुपम लोकतांत्रिक गौरव के साथ आकाश छूता रहे।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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