[प्रसंगवश – 26 जून: अंतरराष्ट्रीय नशा निषेध दिवस]
नशा - खामोश जहर, बिखरता जीवन: किस ओर जा रहे हैं हम?
[छूटते हाथ, टूटते घर, बुझती आँखें: नशे की असल कीमत]
अगर कोई ज़हर मुस्कुराहट के साथ परोसा जाए, तो क्या वह कम घातक हो जाएगा? नहीं। फिर क्यों समाज में नशे को कभी तनाव का इलाज, कभी स्टाइल का हिस्सा, और कभी दोस्तों की ‘मस्ती’ का नाम देकर सामान्य बना दिया गया है? नशा आज एक आदत नहीं, एक सुनियोजित आत्मघाती योजना बन चुका है, जो हर दिन लाखों ज़िंदगियों की नींव को चुपचाप खोखला कर रहा है। हर साल 26 जून को जब दुनिया अंतरराष्ट्रीय नशा निषेध दिवस मनाती है, तो सवाल सिर्फ इतना नहीं कि हम इसके खिलाफ कितनी बातें कर रहे हैं—बल्कि यह है कि क्या हम इसके खिलाफ सच में खड़े हो रहे हैं? यह दिन केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक जागृति का आह्वान है—एक ऐसी क्रांति की शुरुआत, जो नशे की जड़ों को उखाड़ फेंके और समाज को उसकी चपेट से मुक्त करे।
नशे की त्रासदी केवल इसके शारीरिक या मानसिक नुकसान तक सीमित नहीं है; इसकी असली ताकत उस सामाजिक स्वीकार्यता में है, जो इसे धीरे-धीरे हमारे जीवन में घुसने देती है। स्कूल के किशोर से लेकर कॉरपोरेट ऑफिस में काम करने वाले प्रोफेशनल तक, नशा अब एक ‘पर्सनल चॉइस’ का लबादा ओढ़ चुका है। संयुक्त राष्ट्र की 2023 की विश्व ड्रग रिपोर्ट के अनुसार, विश्व भर में लगभग 29.6 करोड़ लोग नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं, और यह संख्या हर साल बढ़ रही है। भारत में स्थिति और भी चिंताजनक है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) और अन्य सर्वेक्षणों के अनुसार, भारत में 15 से 34 वर्ष की आयु के बीच के लाखों युवा नशे की चपेट में हैं। इनमें से कई स्कूली बच्चे और कॉलेज छात्र हैं, जो ड्रग्स, शराब, और तंबाकू के जाल में फंस रहे हैं। क्या यह महज संयोग है, या हमारी सामाजिक और शैक्षिक व्यवस्था की विफलता?
नशे की यह महामारी केवल एक व्यक्ति की कमजोरी नहीं है; यह एक सामाजिक संरचना की खामी है। जब नशा ‘कूल’ होने का पर्याय बन जाता है, जब फिल्मों में सिगरेट का धुआं या शराब का ग्लास ‘हीरोइज्म’ का प्रतीक दिखाया जाता है, तो हमारी युवा पीढ़ी को गलत संदेश मिलता है। आज का युवा नशे को स्टेटस, स्टाइल, और स्वतंत्रता से जोड़ता है। यह एक ऐसी भ्रांति है, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को बर्बाद करती है, बल्कि पूरे समाज के नैतिक और सांस्कृतिक ढांचे को कमजोर करती है। नशा केवल शरीर को नहीं खोखला करता; यह सपनों, रिश्तों, और आत्मविश्वास को भी नष्ट करता है। एक नशेड़ी न केवल अपनी जिंदगी को जोखिम में डालता है, बल्कि अपने परिवार और समाज पर भी एक बोझ बन जाता है।
नशे के पीछे कई कारण गिनाए जाते हैं—तनाव, बेरोजगारी, सामाजिक दबाव, या फिर दोस्तों का प्रभाव। लेकिन क्या हमने कभी यह पूछा कि हमारी व्यवस्था इस समस्या को रोकने में कितनी नाकाम रही है? नशा विरोधी कानून, जैसे नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट (एनडीपीएस), 1985, भारत में मौजूद हैं, लेकिन इनका प्रभावी कार्यान्वयन कहाँ है? स्कूलों में नशे के खिलाफ जागरूकता के नाम पर साल में एक बार भाषण या पोस्टर प्रतियोगिता करवा दी जाती है, लेकिन क्या यह पर्याप्त है? ड्रग तस्करी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की कमी और नशे की आसान उपलब्धता इस समस्या को और बढ़ा रही है। उदाहरण के लिए, हाल के वर्षों में भारत में सस्ते और खतरनाक सिंथेटिक ड्रग्स, जैसे मेफेड्रोन (म्याऊं-म्याऊं), की तस्करी में वृद्धि हुई है। ये नशीले पदार्थ न केवल सुलभ हैं, बल्कि इनका प्रचार सोशल मीडिया और डार्क वेब के जरिए भी हो रहा है।
नशे का प्रभाव केवल शारीरिक या मानसिक नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक भी है। एक नशेड़ी व्यक्ति न केवल अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को भी अस्थिर करता है। नशे की लत के कारण लोग अपनी नौकरी, शिक्षा, और सामाजिक प्रतिष्ठा खो देते हैं। परिवार टूटते हैं, बच्चे अनाथ होते हैं, और समाज में अपराध बढ़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, नशीले पदार्थों के दुरुपयोग से होने वाली बीमारियों और अपराधों का वैश्विक आर्थिक बोझ अरबों डॉलर में है। भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ पहले ही संसाधनों की कमी है, नशे की यह महामारी एक और बड़ी चुनौती है।
इस समस्या का समाधान केवल सरकारी नीतियों या कानूनों तक सीमित नहीं हो सकता। इसके लिए एक सामूहिक प्रयास की जरूरत है, जिसमें हर व्यक्ति, हर परिवार, और हर समुदाय की जिम्मेदारी बनती है। माता-पिता को अपने बच्चों से खुलकर बात करनी होगी—न कि डर या ताने के साथ, बल्कि प्यार और विश्वास के साथ। शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों के व्यवहार पर नजर रखें और उन्हें नशे के खतरों के बारे में शिक्षित करें। स्कूलों और कॉलेजों में नशा निषेध पर नियमित कार्यशालाएँ और काउंसलिंग सत्र आयोजित किए जाने चाहिए। सरकार को नशा तस्करी के खिलाफ सख्ती बरतनी होगी और नशामुक्ति केंद्रों की संख्या और गुणवत्ता बढ़ानी होगी।
मीडिया और सिनेमा की भूमिका भी अहम है। जब तक फिल्में और वेब सीरीज नशे को ‘ग्लैमराइज’ करती रहेंगी, तब तक युवाओं के दिमाग से यह भ्रांति नहीं निकलेगी कि नशा ‘कूल’ है। हमें ऐसी कहानियाँ और किरदारों को बढ़ावा देना होगा जो नशे के खिलाफ लड़ते हों, जो अपनी इच्छाशक्ति से इसे हराते हों। असली हीरो वही है, जो नशे की लत को ठुकराकर अपने सपनों को हकीकत में बदलता है। सामाजिक स्तर पर भी हमें नशे के शिकार लोगों को हाशिए पर धकेलने के बजाय, उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश करनी होगी। नशामुक्ति केंद्रों को केवल सुधार गृह नहीं, बल्कि पुनर्जनन के केंद्र के रूप में देखा जाना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि नशा एक बीमारी है, और इसका इलाज दया, समझ, और समर्थन से ही संभव है।
26 जून का अंतरराष्ट्रीय नशा निषेध दिवस हमें याद दिलाता है कि यह लड़ाई केवल एक दिन की नहीं, बल्कि हर दिन की है। यह केवल एक जागरूकता अभियान नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का आह्वान है। हमें नशे को सामान्य बनाना बंद करना होगा। हमें अपने बच्चों को यह सिखाना होगा कि असली ‘मस्ती’ जिंदगी जीने में है, न कि इसे नशे में डुबाने में। हमें अपने समाज को यह बताना होगा कि नशा स्वतंत्रता नहीं, गुलामी है। और हमें खुद से यह वादा करना होगा कि हम नशे को न केवल अपने जीवन से, बल्कि अपनी सोच और संस्कृति से भी बाहर करेंगे। क्योंकि नशा वह आग है, जो न केवल सपनों को जलाती है, बल्कि हमारी सभ्यता को भी राख में बदल देती है। अगर हमें अपने देश का भविष्य बचाना है, तो हमें पहले इसे नशे की गिरफ्त से आजाद करना होगा। यह समय खामोशी का नहीं, क्रांति का है। यह समय बातें करने का नहीं, बल्कि कदम उठाने का है। 26 जून को एक संकल्प लें—नशा मुक्त भारत, नशा मुक्त विश्व। क्योंकि जब तक एक भी व्यक्ति नशे की चपेट में है, हमारी जीत अधूरी है। नशे के खिलाफ यह जंग हमारी है, और इसे हमें ही जीतना है।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)