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'तुलसीदास' नाम के साथ 'गोसाई' शब्द लगने का रहस्य ! - आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार,नर्मदापुरम


 

'तुलसीदास' नाम के साथ 'गोसाई' शब्द लगने का रहस्य !

 - आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

      देववाणी संस्कृत में गोस्वामी शब्द है जिसका विकृत रूप 'गोसाई' माना गया है, मूलतः इस शब्द का अर्थ 'इंद्रिय-निग्रह' होता है। किंतु इस शब्द का प्रयोग एक सीमित अर्थ में कई शताब्दियों से होता चला आ रहा है, फलतः कभी कभी जब हम साधारण योगियों और सन्यासियों को भी इस शब्द द्वारा संबोधित करते हैं तो वह अधिकतर हमारी असावधानी का परिचायक होता है। वस्तुतः 'गोसाई' उपाधि के अधिकारी वे ही साधु माने जाते हैं जो कतिपय विशिष्ट संप्रदायों में दीक्षित होते हैं। ऐसे संप्रदाय गिनती के पाँच हैं- 'वृन्दावनी,' 'गौड़ीय,' 'गोकुल स्थ,' 'राधावल्लभी' और 'दशनामी'। गोस्वामी ब्राह्मण दशनामी संप्रदाय के ब्राह्मण को कहा जाता है, दशनामी संप्रदाय की मूल उत्पत्ति नाथ संप्रदाय से है, जिसके संस्थापक स्वयं भगवान शिव हैं। नाथ संप्रदाय भारत में शैव ब्राह्मणों का प्राचीन संप्रदाय है जिनके अनुयायियों को नाथ गोस्वामी दशनाम योगी, बाबा, जोगी आदि उपनामों से जाना जाता है।

      तुलसीदास जन्म से गोसाईं नहीं थे, गोसाईं की उपाधि उन्हे किसी ने दी थी, किसने दी इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सका किन्तु हनुमान बाहुक में जरूर उल्लेख मिलता है कि –तुलसी गोसाईं भयों, भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हो॥ रामचरित्र मानस जैसे चमत्कारिक महाकाव्य लिखने के बाद कई वर्षों तक काशी के प्रकांड पंडितों ने उन्हे सम्मान नहीं दिया ओर शास्तार्थ शास्त्रार्थ  को ललकार कर भाषा का प्रमाण मांगा तब तुलसीदास ने कहा – हरिहर जस सुर नर गिरा, वर्णहि संत सुजान, हाड़ी हाटक चारु चिर, राँधे स्वाद समान॥ तब काशी के प्रसिद्ध विद्वान मधुसूदनाचार्य दंडी स्वामी ने यह सुना तो तब से वह के विद्वानों ने तुलसीदास के प्रति द्वेष समाप्त किया। इन बातों के आधार पर भी उन्हे काशी के विद्वानों ने गोसाई की उपाधि दी हो, इसके साक्ष्य नही मिलते है इसलिए यह स्वीकार करना ही ठीक होगा कि स्वतः 'तुलसीदास' के आगे लगा हुआ 'गोसाई" शब्द जोड़ा गया है जो केवल विरक्ति का परिचायक नहीं माना जा सकता है। संभवतः वह उन के किसी 'गोसाई' उपाधि देने वाले संप्रदाय में दीक्षित होने पर उन के नाम के साथ लगा हो सकता है? यह 'गोसाई' संप्रदाय इस समय के वैष्णव-गोसाई संप्रदायों में से कोई न था।

      गोसाई जी की कृतियों में 'स्मार्त' मत को इतनी गहरी छाप है, और शिव के प्रति उन की इतनी ऊँची भावनाएँ हैं कि अधिकतर संभव यही जान पड़ता है कि वे 'दशनामी' संप्रदाय में दीक्षित हुए थे-या ऐसे ही किसी अन्य शिवोपासक संप्रदाय में जो 'गोसाई' उपाधि अपने अनुयायियों को देता था और अब वह संप्रदाय संभवतया लुप्त हो गया है, हो कहना मुश्किल है। तुलसीदास की रचनाओं से यह भी सुनिश्चित सा है कि वे अंत तक 'स्मार्त' नहीं बने रहे और पक्के वैष्णव हो गए, कदाचित् इसी कारण शिव के सेवकों ने उन्हें कठिन पीड़ा भी पहुँचाई, किंतु वह 'गोसाई' उपाधि जो एक बार उन्हें मिल चुकी थी अंत तक उन के नाम के साथ लगी रही और आज भी लगी चली आ रही है। यह क्रिया कालांतर के प्रयोग के कारण इतनी स्वाभाविक सी हो गई है कि अधिकतर हम तुलसीदास का नाम लेने के स्थान पर जब उन का बोध कराना होता है केवल 'गोसाई' जी' या 'गोस्वामी जी' नामक उन की उपाधियों द्वारा ही उन का बोध कराते हैं। विचारणीय है जहां लोगो के मूल नाम के साथ उनकी उपाधि या उपनाम से उनकी पहचान समाज के सामने बन जाती है तब जबकि तुलसीदास के नाम के साथ लगा हुआ 'गोसाई' शब्द इतना निर्बल कमजोर ओर निरीह है कि उसके बिना उनके  मूल नाम की आवश्यकता को भुला दिया गया। संभवत उस में एक तत्व छिपा हुआ है जिस के अनुसंधान का प्रयत्न कदाचित् अभी तक नहीं किया गया है। आशा है कि विद्वानों का ध्यान इस संबंध में अवश्य आकर्षित होगा।

      जिन पाँच संप्रदायों से गोसाईं की उपाधि दी जाती है उनके विषय में जानना इसलिए आवश्यक हो गया है कि विश्व में रामचरित्र मानस व अन्य ग्रंथ देने वाले संत तुलसीदास पर चिंतन कर लिखने का दुस्साहस करना मुझ जैसे व्यक्ति जो उनके चरणों की धूल का कण भी नहीं बन सकता के अपराध बनने पर क्षमा मिल सके। पहले 'वृन्दावनी गोसाई' आते है जो राधा-कृष्ण के उपासक होते हैं। इन के प्रथम आचार्य कदाचित् महात्मा निम्बार्क थे जिन का समय 13 वीं शताब्दी माना जाता है।"  दूसरे क्रम में 'गौड़ीय गोसाई' होते है जो कृष्णोपासक होते हैं। इन के आदि आचार्य चैतन्य महाप्रभु थे जिन का गोलोकवास सं० 1584 में हुआ माना जाता है। चैतन्य देव के प्रेम का आदर्श गोपियों का प्रेम था और यही उन के अनुयाइयों का भी एक आदर्श बना। तीसरे क्रम में 'गोकुल स्थ गोसाई' उपाधि द्वारा महाप्रभु वल्लभाचार्य के दूसरे पुत्र गोसाई विट्ठलनाथ और उन के उत्तराधिकारी अभिहित होते हैं। गोसाई' बिठ्ठल- नाथ जी का समय सं० 1572 से सं० 1644 तक माना जाता है। गोसाईं विट्ठलनाथ जी वात्सल्य भाव के साथ कृष्ण के उपासक थे । नाभादास जी ने लिखा है कि नंद ने द्वापर में कृष्ण-प्रेम में वात्सल्य-सुख का जो अपूर्व अनुभव किया उसी का अनुभव कलियुग में वल्लभाचार्य के पुत्र विठ्ठलनाथ ने अपने पुत्रों के प्रेम से किया। फलतः कृष्ण की वात्सल्य-भाव-मयी उपासना ही इस संप्रदाय की प्रमुख विशेषता हुई। अधिष्ठात्री-देव श्रीनाथ जी हैं, जो गोवर्धन में पहले स्थापित थे किंतु सं० 1728 से जो नाथद्वारे में स्थापित हैं।

      'राधावल्लभी' संप्रदाय चौथे क्रम में है ,जिसके संस्थापक हितहरिवंश जी थे जो तुलसीदास के समकालीन थे। कहा जाता है कि राधिका जी ने उन्हें स्वप्न में मंत्र दिया था, जिस से प्रेरित हो कर इन्हों ने 'राधावल्लभी' संप्रदाय की स्थापना की। सं० 1582 में इन्हों ने राधावल्लभ की मूर्ति वृन्दावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे। इन की उपासना के संबंध में लिखते हुए नाभादास जी ने लिखा है कि "इन की भक्ति प्रधानतः श्री राधा के चरणों में अत्यंत दृढ़ थी और इन्हों ने दंपति के केलिकुंज-संबंधी सेवाओं का भार विशेष रूप से अपने ऊपर लिया था।"* फलतः, इस संप्रदाय की भक्ति सखीभाव की मानी जाती है।"

      दशनामी संप्रदाय पांचवें क्रम मे है इसमें कुल दश तरह के उपनाम होते है जिनमे गिरि, नाथ, पुरी, भारती, योगी, पर्वत, सरस्वती, सागर, वन, अरण्य, आश्रम एवं तीर्थ शामिल है गोस्वामी शीर्षक का मतलब गौ अर्थात पांचो इन्द्रयाँ स्वामी अर्थात नियंत्रण रखने वाला। इस प्रकार गोस्वामी का अर्थ पांचो इन्द्रियों को वस में रखने वाला होता हैं। इसी कारण उनका यह नाम गोसाईं माना जा सकता है। गोस्वामियों को अधिकतर शैव संप्रदाय का अंग माना जाता है, किंतु वस्तुतः शिव को उपासना इस संघ में अनिवार्य नही है इसलिए "भारत के अनेक भूभाग में दशनामी गोसाई विष्णु के उपासक भी होते हैं, यद्यपि कुछ अन्य भागों से वे शिव-भक्त जान पड़ते हैं। प्रत्येक स्थान पर श्री शंकराचार्य ही उन के गुरु माने जाते है।" इन का धर्म 'स्मार्त' है जिस के पुनरुद्धारक श्री शंकराचार्य थे। श्री शंकराचार्य ने अद्वैत-मत और ज्ञान-मार्ग के पोषक होते हुए भी उस आदर्श की दुरूहता के कारण कुछ देवताओं की उपासना साधन-रूप से मान ली थी- विशेषता पंचदेव - शिव, विष्णु, सूर्य, गणेश और शक्ति इनके आराध्य ओर उपासना के लिए है।  'स्मार्त धर्म' का मूल सिद्धांत इस प्रकार है- ब्रम्ह  या परब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है, वही इस जगत का कारण और विधाता है, और वह शिव, विष्णु और ब्रह्मा या किसी भी देवता से भिन्न है। उस ब्रह्म का ज्ञान ही सब से अधिक श्रेयस्कर है। उस के यथार्थ ज्ञान से मुक्ति और अद्वैतता प्राप्त होती है। किंतु इसलिए कि मनुष्य का मस्तिष्क उस अनिर्वचनीय मूल कारण के अनुभव के लिए असमर्थ है उस का अनुभव देवताओं के ध्यान द्वारा किया जा सकता है और उस की प्राप्ति के लिए शास्त्रोक्त साधनों को व्यवहार में लाया जा सकता है। यह धर्म हिंदुओं के सभी देवताओं का आदर करता है, और शंकराचार्य ही की स्पष्ट अनुमति से शिव, विष्णु, कृष्ण, सूर्य, शक्ति, गणेश और भैरव।""की उपासना उनके शिष्यों ने शुरू की थी।

      अब मूल प्रश्न यह है कि तुलसीदास ऊपर के पाँच प्रकार के गोसाइयों मे से किस में स्थान पा सकते हैं। यह तो स्पष्ट ही है कि न तो उन्हें 'वृन्दावनी' गोसाई कहा जा सकता है न 'गौड़ीय' न 'गोकुलस्य' और न 'राधावल्लभी' । तो क्या वे 'दशनामी' गोसाइयों में रखे जा सकते हैं। यदि हम गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं को पढ़ कर उन के दार्शनिक और धार्मिक विचारों का समन्वय करते हैं तो हम उन्हें पूरा 'स्मार्त पाते है। शुद्ध 'वैष्णव' धर्म और 'स्मार्त' धर्म में एक महान् अंतर है, और वह यह है कि 'वैष्णव' धर्म 'एकांतिक' धर्म है, उसके शुद्ध रूप में विष्णु और उन के किसी अवतार के अतिरिक्त किसी अन्य देवता के लिए स्थान नहीं है; 'स्मार्त' धर्म सभी देवताओं को आदर की दृष्टि से देखता है। एक दूसरा अंतर दोनों में यह है कि 'वैष्णव' धर्म विष्णु ही को ईश्वर और सर्वश्रेष्ठ शक्ति मानता है किंतु 'स्मार्त' धर्म त्रिदेवों से परे ब्रम्ह को ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति, और मूल-कारण मानता है; उस की दृष्टि में त्रिदेव अथवा किसी भी देवता की उपासना वहीं तक सार्थक है जहाँ तक वह उस अनिर्वचनीय शक्ति का अनुभव करा सकती है। यदि हम इस दृष्टि से गोस्वामी जी की रचनाओं का अध्ययन करते हैं तो हमें पहिले को अपेक्षा दूसरे ही धर्म की ओर उन का स्पष्ट झुकाव आन पड़ता है।

      ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 'दशनामी' गोसाई अधिकतर शिवोपासक ही हुआ करते है इस कारण बहुधा उन्हें शैव-संप्रदाय की एक शाखा मात्र माना जाता है जो कदाचिन् नितांत ठीक नहीं है क्योंकि उन का धर्म 'स्मार्त' है जैसा ऊपर कहा जा चुका है। और शिव के लिए तुलसीदास के हृदय में अत्यंत ऊँचा स्थान है यह एक ऐसा तथ्य है जिसे सभी जानते हैं। अपने 'मानस' के प्रारंभिक तीन कांडों का प्रारंभ ही वे शिव की वंदना से करते हैं और राम की वंदना वे उस के पीछे करते है। 'मानस' की भूमिका में पुनः वे कहते हैं- गुरु पितु मातु महेस भवानी। प्रणयो दीनबंधु दिन दानी॥ सेवक स्वामी सखा सिय पिय के।हित निरुपधि सब विधि तुलसी के॥ हित-उपदेश के लिए शंकर को गुरु मानने की बात का समर्थन वे अपने जीवन के अंतिम दिनों में कहे गए नीचे लिखे छंद की दूसरी पंक्ति मे स्पष्ट रूप से कहते हैं- सीता पति साहेब, सहाय हनुमान नित हित उपदेश को महेस मान्यो गुरु कै। मानस बचन काय सरन तिहारे पाय तुम्हरे भरोसे सुर में  न जाने सुर के ॥ व्याधि भूत जनित उपाधि काहू खल की, समाधि कीजै तुलसी को जानि जन फुरकै।  कपि नाथ, रघुनाथ, भोलानाथ, भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर के ॥

      तुलसीदास ने अपनी संपूर्ण रचनाओं में राम को ब्रम्ह कहा है और कितने हो स्थलों पर उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और शिव से भी ऊपर- विधि हरि शंभू नचावन हारे॥ यहा नचावन शब्द मे उनकी धारणा स्पष्ट हो जाती है किन्तु जो बात अधिक ध्यान देने योग्य है वह यह की राम हरि विष्णु को भी नचाने वाले हैं इसी सिद्धांत  को 'मानस' के सती-मोह प्रकरण में एक प्रत्यक्ष घटना के रूप में उन्होंने इस प्रकार रखा है-सती दीख कौतुक भग जाता । आगे राम सहित श्री भ्राता॥ फिरि चितना पाछे प्रभु देखा। सहित बंधु सिय  सुंदर वेषा ॥ जहें चितवहि तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रवीना ॥ देखे सिव विधि विष्णु अनेका। अमित प्रभाऊ एक से एका ॥ बंदत चरन करत प्रभु सेवा । विविधि वेष देखे सब देवा ॥ पूजहिं प्रभुद्धि देव बहु वेषा। रामरूप दूसर नहि देखा ॥अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित व वेप बनेरे ॥ सोइ खुबर सोइ लछिमन सीता । सती देखि अति भई सभीता ॥

      तुलसीदास ने रामायण में एक से एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत किए है जहां सारे देवता जिसमें स्वयं विष्णु भी है राम के चरणों की वंदना करते हैं और उन की पूजा करते हैं। इस प्रसंग में इतना और भी ध्यान देने योग्य है कि देवता अनेक रूप धारण कर राम की पूजा करते हैं किंतु राम का रूप परिवर्तित नहीं होता। यद्यपि सती ने अनेकों राम भी देखे किंतु सीताराम (अर्थात् माया और ब्रह्म) का वेष उन अनेक परिस्थितियों में भी वही बना रहा। यह तथ्य इस प्रकार से रखने का प्रयोजन यह है कि तुलसीदास राम का निर्देश उस अपरिवर्तनीय मूल-सत्ता के रूप में करना चाहते हैं जिसे दार्शनिक भाषा में ब्रह्म कहकर अभिहित किया जाता है। वस्तुतः तुलसीदास के राम विष्णु के अवतार नहीं हैं वे स्वर्य सगुण ब्रह्म हैं, 'मानस' की तो पूरी कथा ही पार्वती की इस शंका के समाधान के लिए कही गई है- ब्रह्म जो व्यापक विरज अज, अकल अनीह अभेद । सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत वेद॥ स्वयं तुलसीदास ने भी राम-ब्रह्म की प्राप्ति के लिए अन्य देवताओं की उपासना की थी 'विनय पत्रिका' के अनेक पदों और स्तोत्रों मे तो उन्होंने सनातन से चले आते लगभग सभी हिन्दू देवियों और देवताओं की वंदना की है ओर राम भक्त हनुमान के दर्शनों के बाद किस प्रकार चित्रकूट पर राम के दर्शन किए सभी को ज्ञात है।

      तुलसीदास दशनामी गोसाई ओर स्मार्त धर्म से है इसका उल्लेख 'मानस' रचना के प्रारंभ की तिथि के द्वारा समझा जा सकता है जहां रामनवमी तिथि 2 होती है, एक स्मातों की और दूसरी वैष्णवों  की। स्मार्तों की रामनवमी उस दिन पड़ती हैं जिस दिन मध्याह्न में भी नवमी की तिथि बनी रहती है, किंतु वैष्णवों की रामनवमी उस दिन पढ़ती है जिस दिन वह तिथि  मध्याह्न के पूर्व ही समाप्त हुई रहती है। यदि हम किसी भी वर्ष के पंचांग को उठा कर देखे तो यह भेद स्पष्ट हो जायगा। मानस-आरंभ की तिथि तुलसीदास इस प्रकार देते हैं- संवत सोरह सै एकतीसा । करो कथा हरिपद धरि सीसा । नवमी भौमवार मधुमासा । अवधपुरी यह चरित प्रकासा ॥ गणना से यह भली भाँति प्रमाणित है कि वैष्णवों की एक नवमी सं० 1631 में बुधवार को पड़ती है और स्मार्तों की मंगलवार को। यहाँ पर तुलसीदास ने स्पष्ट ही भौमवार (मंगलवार) को रामनवमी जान कर अपने विश्व-विश्रुत ग्रंथ के प्रणयन का प्रारंभ किया है, फलतः उन के स्मार्त होने में और भी कम संदेह रह जाता है। एक अन्य उदाहरण में तुलसीदास ने 'विनय पत्रिका' के एक स्तोत्र 'हरिशंकरी' नाम से प्रख्यात किया है ओर उसके स्तोत्र में तो शिव को न केवल 'निर्गुणं निर्विकारं' कहा है वहीं 'विष्णु-विधि-वन्य चरणारविन्दम्' तक कह डाला है।" प्रश्न यह है कि क्या सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में तुलसीदास के समय के वैष्णव यह स्वीकार कर सकते थे कि राम ब्रह्मा, विष्णु और शिव को नचाने वाले है।  अथवा उस से भी अधिक यह कि शिव के चरणों की वंदना विष्णु और ब्रह्मा भी करते हैं। किंतु न तो कोई इस प्रकार की जनश्रुति ही है और न इस विषय का कोई उल्लेख तुलसीदास ने ही किया है कि वैष्णों ने भी उन्हे कभी कष्ट पहुँचाया। उलटे, उन्हों ने यह कहा है कि शिव के उपासको और सेवकों ने उन्हें पीड़ा पहुँचाई।

      'विनय पत्रिका' के एक पद में वे शिव से प्रार्थना करते हुए कहते हैं- गाँव बसत वामदेव कवहुँ न निहोरे । अधि भौतिक वाधा भई ते किकर तोरे ॥ वेगि बोलि वलि वरजिए करतूनि कठोरे । तुलसी दलि रुप्यों चहे सठ साखि सिंहोरे ॥ अर्थात -  'तुम्हारे गाँव मे बसते हुए भी मैं ने तुम से कभी कोई याचना नहीं की..।' और, 'कवितावली' के एक बंद में तो वे यहाँ तक कहते हैं 'यदि आप मेरी प्रार्थना नहीं सुनते तो यदि मेरे स्वामी आप को कुछ उलाहना देंगे तो उसके लिए मुझे मत उलाहना दीजिएगा, मै अपना कर्तव्य कर चुका। (आप नहीं सुन रहे हैं तो उस के लिए मुझे अपने स्वामी से कहना हो पड़ेगा, तव यदि आप को उलाहना मिले तो उस में मेरा कोई अपराध न होगा।  अब, प्रश्न यह है कि किसी ऐसे वैष्णव को शिव के सेवकों ने क्यों कष्ट पहुँचाया होगा जो वैष्णन होता हुआ भी शिव के लिए 'विष्णु -विधिन्वन्ध चरणारविन्दं' पद का प्रयोग करता हो। बाहु पीड़ा के भयंकर रूप धारण करने पर अपने जीवन से निराश से होते हुए तुलसीदास ने 'बाहुक' के दो बूंदों से अपने पिछले जीवन की कुल कथा बड़े सुंदर ढंग से कह डाली है। इन्हीं में से एक इस प्रकार है- वालपने सुधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं। परयों  लोक-नीति में पुरीत प्रीति राम राय मोह बस बैठ्यो तोरि तरक तराक हौं ॥ खोटे खोटे आचरन  आचरत अपनायो, अंजनीकुमार सोध्यो राम पानि पाक हौं। तुलसी गोसाई भयो भोंडे दिन भूलि गयो ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥ अर्थात् 'बाल्यावस्था में में स्वभावतः राम-सन्मुख हुआ, राम का ही नाम ले कर टुकड़े माँगता खाता था। फिर लोकाचारों में पड़ कर जब मोह- वश राम की पुनीत प्रीति को यकायक तोड़ बैठा तब मुझे दुराचरों में पड़ा हुआ देख कर राम के सेवक हनुमान ने मेरा उद्धार किया और मुझे राम के पवित्र चरणों की प्राप्ति हुई। किंतु, मैं 'गोसाई' हो गया और अपने दुर्दिनो को भूल गया उसी का फल अंत में भली भाँति इस रूप में पा रहा हूँ।'     

 - आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

श्री जगन्नाथ धाम काली मंदिर के पीछे ग्वालटोली,

नर्मदापुरम मध्य प्रदेश मोबाइल 9993376616

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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