काव्य :
'ऋतु बसंत की आ गई'
कुण्डलिया छन्द
ऋतु बसंत की आ गई, खिली यौवना सृष्टि।
नाच उठे हैं मन मदन, पुलकित है हर दृष्टि।
पुलकित है हर दृष्टि। प्रकृति में नव रँग छायें।
भांति भांति के फूल, खिले सुगंध बिखरायें।
करते गुंजन गान। मकरंद मधुकर पाते।
छेड़ नेह का राग, आनंद रस भर लाते।
फूली सरसों खेत में, बलखाती है झूम।
यौवन छलकाती सु मन, रहीं सखी मुख चूम।
रहीं सखी मुख चूम, प्रेम आपस में करतीं।
बासंती मदमस्त,प्रीत रस उर में भरतीं।
पा जीवन मकरंद, ढंग दुख के वे भूलीं।
बांट रहीं चहुँ हर्ष, मोद से सरसों फूलीं।
स्वर्णमयी आभा लिए, खिला बसंती रूप।
कितनी प्यारी सी लगे, सतरंगी यह धूप।
सतरंगी यह धूप, प्राण सम ऊर्जा लाती।
देकर भव्य प्रकाश, भास से जग हर्षाती।
कह 'दीपक' निजमान, धूप यह जोश जगाती। भ
रती प्राणी ओज नवल मन खुशियां लाती।
- रजनीश मिश्र 'दीपक' खुटार शाहजहांपुर उप्र