[प्रसंगवश – 24 जून: रानी दुर्गावती पुण्यतिथि]
नारी जब सिंहनी बनी: गोंडवाना की अमर प्रहरी रानी दुर्गावती
[जिसने मृत्यु को आदेश दिया: वीरता की पराकाष्ठा – रानी दुर्गावती]
भारतीय इतिहास की वीरगाथाओं में कुछ नाम ऐसे हैं, जो समय की धूल में कभी धूमिल नहीं होते। वे न केवल अपने युग की प्रतीक होती हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनकर अमर हो जाती हैं। ऐसी ही एक नाम है रानी दुर्गावती—एक ऐसी वीरांगना, जिन्होंने अपने साहस, स्वाभिमान और बलिदान से भारत की मिट्टी को गौरवान्वित किया। उनकी गाथा केवल युद्ध और विजय की कहानी नहीं, बल्कि एक नारी के अटल संकल्प, नेतृत्व और मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम की अमर दास्तान है। रानी दुर्गावती ने यह सिद्ध किया कि जब बात सम्मान और स्वतंत्रता की हो, तो नारी शक्ति किसी भी चुनौती से कम नहीं। उनकी वीरता का आलम यह था कि मुग़ल साम्राज्य जैसी विशाल शक्ति भी उनके सामने ठिठक गई।
1524 में चंदेल वंश के गौरवशाली कालिंजर किले में जन्मीं दुर्गावती बचपन से ही असाधारण थीं। उनके पिता, राजा कीरत राय, ने उन्हें केवल एक राजकुमारी के रूप में नहीं, बल्कि एक योद्धा के रूप में तैयार किया। उस युग में, जब अधिकांश स्त्रियाँ महलों की चारदीवारी तक सीमित थीं, दुर्गावती ने तलवारबाज़ी, तीरंदाज़ी, घुड़सवारी और युद्धनीति में महारत हासिल की। उनकी शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं थी; वे रणभूमि की चुनौतियों को समझने वाली कुशल रणनीतिकार थीं। उनके हृदय में देश और धर्म के लिए कुछ कर गुजरने की ललक थी, जो उनके हर निर्णय में झलकती थी।
उनका विवाह गोंडवाना के शासक दलपत शाह से हुआ, जो चंदेल और गोंड संस्कृतियों का अनूठा संगम था। यह विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं, बल्कि दो शक्तिशाली परंपराओं का एकीकरण था। किंतु नियति ने उनके जीवन में एक कठिन मोड़ ला दिया। विवाह के कुछ वर्ष बाद ही दलपत शाह का असामयिक निधन हो गया। उस समय उनका पुत्र वीर नारायण अभी बालक था। सामान्य स्त्री के लिए यह स्थिति टूटने का कारण बनती, पर दुर्गावती ने इसे अवसर में बदला। उन्होंने गोंडवाना की बागडोर अपने हाथों में ली और एक कुशल शासिका के रूप में अपनी पहचान बनाई।
रानी दुर्गावती का शासनकाल, जो लगभग 16 वर्षों तक रहा, न केवल गोंडवाना के इतिहास में स्वर्णिम काल था, बल्कि यह एक आदर्श प्रशासन का उदाहरण भी था। उन्होंने कृषि और जल प्रबंधन को बढ़ावा दिया, सड़कों का निर्माण करवाया, और न्याय व्यवस्था को इतना सुदृढ़ किया कि प्रजा उन्हें माता के समान पूजने लगी। उनकी प्रजा के प्रति संवेदनशीलता और निष्पक्षता ने उन्हें एक लोकप्रिय शासिका बनाया। वे केवल राजमहल में बैठकर शासन नहीं करती थीं; वे युद्ध के मैदान में भी उतनी ही प्रखर थीं। उनकी सेना में सैनिकों का मनोबल उनकी उपस्थिति मात्र से दोगुना हो जाता था।
लेकिन उस युग में स्वतंत्र रियासतों का अस्तित्व बनाए रखना आसान नहीं था। मुग़ल सम्राट अकबर की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ गोंडवाना की ओर बढ़ रही थीं। 1564 में अकबर ने अपने सेनापति आसफ खाँ को गोंडवाना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। यह वह क्षण था, जब रानी दुर्गावती के साहस और नेतृत्व की सच्ची परीक्षा हुई। उन्होंने आत्मसमर्पण का रास्ता चुनने के बजाय युद्ध का बिगुल बजा दिया। उनकी सेना संख्या में मुग़ल सेना से बहुत कम थी, पर रानी की रणनीति और सैनिकों का जोश इस कमी को पूरा कर रहा था। नरई नाले के किनारे हुए युद्ध में रानी ने स्वयं सेना का नेतृत्व किया। घोड़े पर सवार, धनुष-बाण से सुसज्जित, वे किसी देवी की तरह रणभूमि में उतरीं। उनके प्रहारों ने मुग़ल सेना को हतप्रभ कर दिया।
पहले दिन का युद्ध रानी के पक्ष में रहा, पर मुग़ल सेना की विशाल संख्या और निरंतर हमले ने स्थिति को जटिल बना दिया। दूसरे दिन, जब युद्ध अपने चरम पर था, रानी का घोड़ा घायल हो गया। उनके शरीर पर तीरों के घाव थे, और तरकश खाली हो चुका था। फिर भी, उनकी आँखों में हार का कोई भाव नहीं था। जब उन्हें आभास हुआ कि अब जीत संभव नहीं और मुग़ल सेना उन्हें बंदी बना सकती है, तो रानी ने अपमानजनक पराजय को स्वीकार करने के बजाय आत्मबलिदान का मार्ग चुना। 24 जून 1564 को, उन्होंने अपनी कटार से स्वयं को समाप्त कर लिया, पर अपने स्वाभिमान और मातृभूमि के सम्मान को अक्षुण्ण रखा। यह बलिदान केवल एक जीवन का अंत नहीं था; यह एक ऐसी ज्वाला थी, जो आज भी भारत के कोने-कोने में प्रज्वलित है।
रानी दुर्गावती की गाथा केवल गोंडवाना तक सीमित नहीं है। वे उस नारी शक्ति की प्रतीक हैं, जो समय की हर चुनौती को ललकार सकती है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि साहस और स्वाभिमान की कोई लिंग सीमा नहीं होती। उन्होंने यह दिखाया कि एक स्त्री न केवल घर की नींव संभाल सकती है, बल्कि युद्ध के मैदान में भी तूफान ला सकती है। उनकी स्मृति आज भी मध्यप्रदेश में जीवित है। जबलपुर का रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, उनके नाम पर बने स्मारक, और हर वर्ष 24 जून को मनाया जाने वाला बलिदान दिवस उनकी अमरता का प्रमाण हैं।
रानी दुर्गावती का जीवन एक ऐसी कहानी है, जो हर भारतीय के हृदय में गर्व और प्रेरणा का संचार करती है। वे केवल एक रानी नहीं थीं; वे एक विचार थीं, एक संकल्प थीं, और एक ऐसी शक्ति थीं, जो अपने बलिदान से भी अमर हो गईं। आज जब हम उनकी गाथा को याद करते हैं, तो वह हमें सिखाती है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत हों, आत्मसम्मान और देशप्रेम के लिए लड़ना ही सच्चा जीवन है। रानी दुर्गावती का नाम लेते ही हमारा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है, और हमारा हृदय कह उठता है—यह है भारत की वह वीरांगना, जिसने मृत्यु को भी अपने सामने झुका दिया। वे थीं, हैं, और हमेशा रहेंगी—भारत की अमर ज्वाला, रानी दुर्गावती।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)