[प्रसंगवश – 19 जून: विश्व सिकल सेल जागरूकता दिवस]
सिकल सेल रोग: चुपचाप बहता खून और अनसुनी चीखें
[सिर्फ बीमारी नहीं, एक सामाजिक आपातकाल है सिकल सेल]
बचपन की मुस्कान जब हर सुबह दर्द से कराहने लगे, जब एक किशोर अपने सपनों के पीछे भागने से पहले अपनी नसों की टेढ़ी-मेढ़ी राहों से जूझने लगे — तब समझिए कि कोई सिकल सेल रोग से लड़ रहा है। यह कोई मामूली बीमारी नहीं, यह एक ऐसी चुप्पी में पलती त्रासदी है, जो न केवल शरीर को तोड़ती है, बल्कि आत्मा को भी घायल करती है। यही वजह है कि हर साल 19 जून को विश्व सिकल सेल जागरूकता दिवस केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक पुकार है — उस समाज से जो आज भी इस बीमारी को नज़रअंदाज़ कर रहा है, उस शासन से जो वादे तो करता है पर ज़मीनी हकीकत से कोसों दूर है, और उन लाखों चेहरों से, जो दिन-रात इस अदृश्य संघर्ष में अपने अस्तित्व को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे हैं।
सिकल सेल रोग एक अनुवांशिक रक्त विकार है, जो हीमोग्लोबिन जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं गोल और लचीली होती हैं, जो रक्त वाहिकाओं में आसानी से ऑक्सीजन पहुंचाती हैं। लेकिन सिकल सेल रोग में ये कोशिकाएं कठोर और हंसिया (सिकल) जैसी हो जाती हैं। ये टेढ़ी-मेढ़ी कोशिकाएं रक्त वाहिकाओं में फंस जाती हैं, जिससे रक्त प्रवाह बाधित होता है। इसका परिणाम होता है असहनीय दर्द, जिसे 'सिकल सेल क्राइसिस' कहते हैं, साथ ही अंगों को नुकसान, बार-बार संक्रमण, एनीमिया, और गंभीर मामलों में समयपूर्व मृत्यु। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, विश्व भर में हर साल लगभग 3 लाख बच्चे सिकल सेल रोग के साथ जन्म लेते हैं, और इनमें से अधिकांश मामले उप-सहारा अफ्रीका, भारत, और मध्य पूर्व के कुछ हिस्सों में देखे जाते हैं। भारत में यह रोग विशेष रूप से मध्य और दक्षिणी राज्यों के जनजातीय समुदायों में प्रचलित है, जहां लाखों लोग इस रोग से प्रभावित हैं।
भारत में सिकल सेल रोग का प्रसार चिंताजनक है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के आंकड़ों के अनुसार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, और गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में 10-20% आबादी सिकल सेल जीन की वाहक है। इनमें से कई लोग बिना जानकारी के इस रोग को अगली पीढ़ी तक ले जाते हैं। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के आदिवासी बेल्ट में हर साल हजारों बच्चे इस रोग के साथ जन्म लेते हैं। इन क्षेत्रों में गरीबी, शिक्षा की कमी, और चिकित्सा सुविधाओं का अभाव इस बीमारी को और घातक बनाता है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में सिकल सेल रोग से पीड़ित 50% बच्चे 5 साल की उम्र तक जीवित नहीं रह पाते, अगर समय पर इलाज न मिले। यह आंकड़ा न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि यह समाज और सरकार की उदासीनता पर सवाल भी उठाता है।
सिकल सेल रोग की रोकथाम का सबसे प्रभावी तरीका है जागरूकता और समय पर जांच। विवाह से पहले जीन टेस्टिंग, गर्भावस्था के दौरान स्क्रीनिंग, और नवजात शिशुओं में डायग्नोसिस इस रोग को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। लेकिन भारत जैसे देश में, जहां स्वास्थ्य सेवाएं अभी भी ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में अपर्याप्त हैं, यह एक बड़ी चुनौती है। सामाजिक कलंक भी इस रोग से लड़ने में बाधा डालता है। कई समुदायों में सिकल सेल रोग को 'अभिशाप' या 'किसी पाप का फल' मान लिया जाता है, जिसके कारण रोगी और उनके परिवार सामाजिक बहिष्कार का शिकार होते हैं। यह अंधविश्वास और अज्ञानता ही इस बीमारी को और खतरनाक बनाती है।
भारत सरकार ने इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं। 2023 में शुरू किया गया राष्ट्रीय सिकल सेल उन्मूलन मिशन 2047 तक इस रोग को समाप्त करने का लक्ष्य रखता है। इसके तहत 17 राज्यों में मुफ्त जांच, परामर्श, और उपचार सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सिकल सेल स्क्रीनिंग शिविर आयोजित किए जा रहे हैं, और डिजिटल हेल्थ कार्ड के माध्यम से रोगियों की निगरानी की जा रही है। लेकिन ये प्रयास अभी भी प्रारंभिक चरण में हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों की कमी, प्रशिक्षित चिकित्सकों की अनुपलब्धता, और दवाओं की अपर्याप्त आपूर्ति जैसे मुद्दे इस मिशन की सफलता में रोड़ा बने हुए हैं। उदाहरण के लिए, हाइड्रॉक्सीयूरिया जैसी दवा, जो सिकल सेल रोग के लक्षणों को कम करने में प्रभावी है, कई क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध नहीं है।
सिकल सेल रोग केवल एक चिकित्सकीय समस्या नहीं है, यह एक सामाजिक और आर्थिक चुनौती भी है। इस रोग से पीड़ित लोग अक्सर बार-बार अस्पताल में भर्ती होने के कारण अपनी शिक्षा और रोजगार के अवसर खो देते हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में सिकल सेल रोग के कारण होने वाला आर्थिक नुकसान सालाना अरबों रुपये तक पहुंचता है। इसके अलावा, रोगी और उनके परिवारों को मानसिक तनाव और सामाजिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है। कई मामलों में, सिकल सेल रोग से पीड़ित लोगों को शादी के प्रस्तावों में अस्वीकार कर दिया जाता है, या उन्हें नौकरी में अवसर नहीं मिलते। यह सामाजिक बहिष्कार न केवल रोगी के आत्मविश्वास को तोड़ता है, बल्कि उनके परिवार को भी आर्थिक और भावनात्मक रूप से कमजोर करता है।
19 जून का विश्व सिकल सेल जागरूकता दिवस हमें यह याद दिलाता है कि इस रोग से लड़ाई केवल अस्पतालों तक सीमित नहीं होनी चाहिए। समाज को इस बीमारी के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है। स्कूलों में बच्चों को सिकल सेल रोग के बारे में शिक्षित करना, समुदायों में जागरूकता अभियान चलाना, और स्थानीय नेताओं को इस मुद्दे पर सक्रिय करना जरूरी है। गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) और सामुदायिक समूह भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ में कुछ स्थानीय संगठनों ने सिकल सेल रोगियों के लिए मुफ्त परामर्श और दवा वितरण के कार्यक्रम शुरू किए हैं, जो सराहनीय हैं।
सबसे महत्वपूर्ण है रोगियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण। सिकल सेल रोग से पीड़ित व्यक्ति को केवल एक मरीज के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उनके पास भी सपने हैं, इच्छाएं हैं, और एक बेहतर जीवन जीने का हक है। हमें उनकी कहानियों को सुनना होगा, उनके दर्द को समझना होगा, और उनके साथ खड़े होना होगा। एक सिकल सेल रोगी ने एक साक्षात्कार में कहा था, "मैं हर दिन दर्द से लड़ता हूं, लेकिन सबसे ज्यादा दुख तब होता है, जब लोग मुझे कमजोर समझते हैं।" यह भावना हर उस व्यक्ति की है, जो इस रोग से जूझ रहा है। हमें उनकी कमजोरी नहीं, उनकी ताकत को देखना होगा।
19 जून का यह दिन केवल एक जागरूकता दिवस नहीं है, यह एक संकल्प है — एक ऐसा संकल्प जो हमें यह याद दिलाता है कि हर बच्चा, हर व्यक्ति, जो इस रोग से लड़ रहा है, अकेला नहीं है। हमें उनके लिए आवाज उठानी होगी, उनके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मांगनी होंगी, और उनके लिए एक ऐसा समाज बनाना होगा, जहां उन्हें बराबरी का दर्जा मिले। क्योंकि जब एक बच्चा दर्द में भी मुस्कराता है, वह हमसे कुछ नहीं मांगता — बस इतना चाहता है कि अगली बार जब वह गिरे, तो कोई उसका हाथ थामे। हम वह हाथ बनें। यह विश्व सिकल सेल जागरूकता दिवस की सच्ची पुकार है, और इसे सुनना हमारी जिम्मेदारी है।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)