समीक्षा :
स्वयं सिद्धि का वृत्तांत: स्वयंसिद्धा
समकालीन कहानियों में स्त्री विमर्श के नाम पर जो अक्सर लिखे जाते हैं वो अमूमन पाश्चात्य का अनुकरण कर पुरुषों को हर समस्या का कारण सिद्ध करने के उद्देश्य से लिखे जाते हैं पर आलोच्य कहानी संग्रह 'स्वयंसिद्धा' जमशेदपुर की दस वरिष्ठ व नविन लेखिकाओं की ऐसी कहानियों का एक संग्रह है जो स्त्री-पुरुष में भेद की सृष्टि नहीं करता अपितु ऐसी महिलाओं का आख्यान है जो अपने श्रम और पुरुषार्थ से स्वयं को सिद्ध करती हैं और अपना मुकाम हासिल करती हैं। संग्रह की नारी चरित्रों की जो गाथाएं हैं वे सभी जीवन संघर्ष की सच्चाई को पुष्ट करती हैं और अपने आप को सफलता के साथ स्थापित करती नज़र आती हैं। सभी लेखिकाएं अपनी कहानियों से संवेदनाओं के नए आयाम गढ़े हैं और साथ ही सामाजिक विसंगतियां और विषमताओं को भी दर्शाया है। संग्रह का संपादन वरिष्ठ लेखिकाद्वय पद्मा मिश्रा व डॉ सरित किशोरी श्रीवास्तव ने किया है जो छाया प्रकाशन, जमशेदपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है। दस लेखिकाएं जिनकी कहानियां संगृहीत हुई हैं वे हैं-आनंद बाला शर्मा, डॉ सरित किशोरी श्रीवास्तव, पद्मा मिश्रा, छाया प्रसाद, गीता दुबे मिश्र, रेणुबाला मिश्रा, डॉ उमा सिंह किसलय, डॉ मनीला कुमारी, डॉ मीनाक्षी कर्ण, और डॉ अनिता निधि।
भारतवर्ष ने विश्व को ज्ञान का उत्स और पुंज वेदों का सम्बल दिया है और वेदों की ऋचाओं को स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर रचा है। इससे यह स्थापित होता है कि आदि काल से ही भारत ने लिंग भेद नहीं किया। परन्तु, समय के साथ कई कारणों से लैंगिक विषमताएं बढ़ती गयीं और स्त्री जीवन को संकीर्णताओं से जूझना पड़ा है जिसके फलस्वरूप अपनी भावनाओं को, ईप्साओं को, वेदनाओं को और आह्वानों को प्रकाशित कर पाने में नारी असहज हो गयी। कालांतर में स्थितियां बदलीं हैं और जीवन के हर पायदानों में अपनी सिद्धियों से अपनी जगह बना पाने में नारी सफल हो रही हैं। इन्हीं सिद्धियों की कहानियां हैं 'स्वयंसिद्धा'। संग्रह की कहानियाँ जीवन-युद्ध में स्त्रियों की विजय की गाथाएं हैं जो मानव जाति को सुदृढ़ करने के सिलसिलों को पिरोती हैं।
आनंद बाला शर्मा की कहानी 'यह भी सच है' संग्रह की पहली कहानी है जो आज के समय में परिवार के सदस्यों का एक छत के नीचे न रह पाने की समस्या को बयां करती हैं जो बरबस सबकी सच्ची कहानी बन पड़ती है। सरित किशोरी श्रीवास्तव की कहानी 'अस्तित्व' विधवाओं की दुर्दशा को इंगित करती है और वैष्णवी नामक बाल-विधवा की सांस्कृतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक जीत की बात करती है जो स्वयंसिद्धा बन कर उभरती ही। पद्मा मिश्रा अपनी एक कहानी 'मेहनत पर भरोसा' की सुगिया से मेहनतकश महिलाओं के जीवन को काफी बारीकी के साथ पेश की हैं। कहानी यह बताती है कि एक मजदूरी कर गुजर-बसर करती महिला के मन में भी स्नेह, दया, ममता की आस रहती है और जिजीविषा तो ये है कि कुछ न मिलने पर भी उन्हें अपनी मेहनत पर भरोसा होता है और वो चरैवेति का सिद्धांत पर जीती हैं। कहानी अंतिम पंक्तियाँ खुद में एक कहानी कहती हैं--'गरीबी की दुनिया का सूरज सिर्फ रोटी है। चाँद की चमक में भी भात की महक है। एक राहत की सांस लेकर वह नींद में खो जाती है, आज तो जी लें, कल किसने देखा है।'
गीता दुबे मिश्रा अपनी कहानी 'नंबर वन' में इस बात को उजागर करती है कि आज की भाग-दौड़ की ज़िंदगी में भावुकता की जगह सिमटती जा रही है चाहे वो माँ-बेटे जैसे रिश्ते में ही क्यों न हो। रेणुबाला मिश्रा की 'असुर मर्दिनी', उमा सिंह किसलय की 'तरस', मनीला कुमारी की 'अहमियत' मीनाक्षी कर्ण की 'मेहमान' अनिता निधि की 'स्वयंसिद्धा' स्त्रियों की अनछुई संवेदनाओं को उजागर करती हैं और विकट स्थितियों में भी स्वयं को सिद्ध करने की हिम्मत का संकलित गाथा बयां करती हैं।
'स्वयंसिद्धा' कहानी संग्रह स्त्री-विमर्श का एक नया आयाम गढ़ता है जो स्त्री को कमज़ोर नहीं अपितु सिद्धि के लिए संकल्पित के रूप में प्रस्तुत करता है और उत्साह का विषय यह है कि ये काम झारखण्ड के एक छोटे शहर जमशेदपुर की लेखिकाएं करती हैं जो बड़े शहरों कलमकारों से पढ़ने को अक्सर नहीं मिलती हैं।
मुझे आशा है संग्रह की लेखिकाएं अगले दिनों में भाषाई शुद्धता, चरित्र चित्रण और कथावस्तु की योजना पर और भी सिद्धि प्राप्त कर नयी कहानियों के साथ पाठकों के बीच आएंगी और समादृत होंगी।
--डॉ मनोज 'आजिज़'
बहुभाषीय कवि, लेखक व समीक्षक
जमशेदपुर
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