काव्य ; नवगीत : भूख के भजन
सत्ता की सड़कों पर फिसल रहें मन।
और अधिक मेघ नहीं बरसाओं धन।।
लूट गये व्यापारी खेत की तिजोरी।
पेट ये बखारी-सा भर न सका होरी।
धनिया के माथे की, बढ़ रही थकन।।
छूट गई फूलों के हाथों की डोरी।
बाँध गए अंटी में नोट सब सटोरी।।
महँगा है आज सखे मौत से कफ़न।।
काट गई है कैंची, प्रीति की सिलाई।
टीस रही पंछी को, धर्म की चिनाई।।
थोप दिए हैं मन पर, भूख के भजन।।
- भीमराव 'जीवन' बैतूल
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