पितृपक्ष की प्रासंगिकता
हमारी संस्कृति में माता-पिता व गुरु को विशेष श्रद्धा व आदर दिया जाता है, उन्हें देवतुल्य माना जाता है। 'पितरं प्रीतिमापन्ने प्रियन्ते सर्वदेवता:' अर्थात पितरों के प्रसन्न होने पर सारे ही देवता प्रसन्न हो जाते हैं।आत्मिक प्रगति के लिए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है- 'श्रद्धा।' श्रद्धा केवल चिंतन या कल्पना का नाम नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति भी होनी चाहिए. जो उदारता, सेवा, सहायता, करुणा आदि के रूप में ही हो सकती है। इन्हें चिंतन तक सीमित न रखकर कार्यरूप में, परोपकारी कार्यों से ही करना होता है और यही सच्चे अर्थों में श्राद्ध है।
मनुष्य का स्वभाव है कि प्रेम उपकार, आत्मीयता एवं महानता की भावनाओ को जब तक वह प्रकट न करे तब तक उसके हृदय में व्याकुलता बनी रहती है।जिसको वह श्राद्ध या पितरों को नमन द्वारा ही पूरी करता है।
उपकारी के प्रति कृतज्ञता का प्रत्युपकार का भाव रखना भावना क्षेत्र की पवित्रता एवं उत्कृष्टता का प्राणवान चिन्ह है। इसके लिए धनदान आवश्यक नहीं, समय, धन, श्रमदान, भाव दान भी असमर्थता की स्थिति में इसी उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। भारतीय धर्म-परंपरा में श्राद्ध-कर्म की महत्ता बताई गई है कि सुयोग्य पात्र न.मीलने पर या अपनी आर्थिक स्थिति अच्छी न होने की स्थिति में इसे जलांजलि देकर तर्पण के रूप में भी संपन्न किया जा सकता है।जैसे छोटा-सा यज्ञ करने से उसकी दिव्य गंध तथा दिव्य भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुंचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्भावना की लहरें पहुंचाता है। सद्भावना की सुगंध जीवित और मृतक सभी को तृप्त करती है। अपने स्वर्गीय पितरों को नमन कर जो कुछ भी हम अर्पित करते.हैं उन्हें भी श्राद्ध यज्ञ की दिव्य तरंगें आत्मशांति प्रदान करती हैं।
वास्तव में 'पितरों का सम्मान करने के लिए श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे संबंधित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।'
मनुष्य के तीन प्रमुख पूर्वजों जैसे पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृदेवों अर्थात वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनको पूर्वजों का प्रतिनिधि मान कर नमन करना चाहिए।
तर्पण .पुष्पजलि.पूजा.स्मरण सभी क्रियायें अपने पितरों को स्नेह समर्पण का ही एक भाव होते हैं जिन्हें हम अपनी व्यस्तता के बीच भी कुछ समय निकाल कर अर्पित कर सकते हैं। इसलिए सूर्य को अर्घ्य, तुलसी वृक्ष में जलदान, अतिथियों को अर्घ्य तथा पितरगणों को तर्पण का विधान है।हमारी परंपराओं से समाज एवं परिवार में एकता पनपती है। पितृपक्ष को मनाने से हमारी नई पीढ़ी में सांस्कृतिक सोच के साथ बुजुर्गों के सम्मान की भावना का जागरण होता है। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। श्रद्धा को प्रकट करने का जो भाव होता है, वह 'श्राद्ध' कहा जाता है।
जीवित पितरों व गुरुजनों के लिए श्रद्धा प्रकट करने व श्रद्धा करने के लिए उनकी अनेक प्रकार से सेवा, पूजा तथा संतुष्टि की जा सकती है, परंतु स्वर्गीय पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने व अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने का कोई निमित्त निर्माण करना पड़ता है। यह निमित्त श्राद्ध है।
श्राद्ध और तर्पण का मूल आधार अपनी कृतज्ञता और आत्मीयता व सात्विक वृत्तियों को जागृत रखना है। इन प्रवृत्तियों का जीवित, जागृत रहना संसार की सुख-शांति के लिए नितांत आवश्यक है।
बदलाव हमारे जीवन और संस्कति का एक हिस्सा है।हमारी सोच दशा व समय के साथ बदल जाती है, लेकिन कुछ बातें हमेशा प्रासंगिक होती हैंजैसे पितृपक्ष हमारे देश में परिवार से जुड़ी एक परंपरा है जो अपनों को याद करने का एक अवसर प्रदान करती है।हमारे आत्मीय स्वजन पितर जो हमसे जुड़े थे, वो हम सबके लिए हमेशा प्रासंगिक होते हैं.उनके स्नेह. त्याग और सम्मान के प्रतिदान के रुप में आभार व्यक्त करने के लिए पितृपक्ष या श्राद्ध पक्ष की समाज में अवधारणा की गई। जिस के वर्तमान समय में प्रासंगिक होने के कई कारण हैं-
हमारा समाज अत्यंत भौतिकवादी हो गया है। स्वार्थ के बिना कोई किसी की सहायता नहीं करना चाहता है। पितृपक्ष में अपने पूर्वजों के लिए जो भी दान या भोजन हम दूसरों को देते हैं, उससे समाज के गरीब एवं जरूरतमंदों की सहायता होती है तथा समाज में सहयोग एवं समन्वय की भावना जागृत होती है।
- पद्मा मिश्रा-जमशेदपुर