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मध्यकालीन मनीषा के प्रखर प्रवक्ता- संत कबीर .डॉ. रवीन्द्र कुमार सोहोनी मन्दसौर


 कबीर जन्मोत्सव पर विशेष-

मध्यकालीन मनीषा के प्रखर प्रवक्ता- संत कबीर 


 - डॉ. रवीन्द्र कुमार सोहोनी मन्दसौर


(प्रस्तुति डॉ घनश्याम बटवाल )

संत शिरोमणि कबीर मध्यकालीन मनीषा के प्रखर प्रवक्ता है। कबीर भारतीय काव्य परम्परा के नक्षत्राकाश के सबसे ज्वाजल्यमान नक्षत्र हैं। सरल सीधी भाषा में जहाँ आपने एक ओर जनमानस को भक्ति का संदेश दिया वहीं दूसरी ओर धर्म के तथाकथित ठेकेदारों को तबीयत से लताड़ा है। भक्तिकालीन कवियों में कबीर एक ऐसा नाम और व्यक्तित्व है जो हिन्दू और मुस्लिमों में बराकर की श्रद्धा का केन्द्र हैं। कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतवर्ष में इस्लाम बड़ी तीव्रता से अपने पंख फैला रहा था, मुगल साम्राज्य की स्थापना के फलस्वरूप इस्लामिक संस्कृति विकसित हो रही थी, जिसके मध्य तारतम्य बैठाना हिन्दुओं के लिये कठिन हो रहा था। इस दौर में संत कबीर ने राम, खुदा, ईश्वर, अल्लाह को व्यक्तिगत आस्था का विषय निरूपित करत हुए अपने पदों से जनसामान्य में लोकजागरण का कार्य निष्पादित किया। 

अधिकांश मान्यताओं के अनुसार असाधारण संत, कवि और समाज सुधारक कबीर का जन्म 1398 ईस्वी में काशी में हुआ और वे नीरू और नीमा नामक जुलाहा मुस्लिम दंपत्ति की संतान थे। यह धारणा सर्वथा निर्विवाद नहीं है- इस सम्बन्ध में शोधकर्ताओं के स्त्रोत और उनकी राय अलग-अलग है। 

कबीर पंथ में कबीर की उत्पत्ति को दैवीय माना गया है। उनकी मान्यता है की लहरतारा तालाब में पुरइन के एक पत्ते पर सोया हुआ एक बालक नीरू जुलाहे की पत्नी नीमा को मिला, जो आगे चलकर कबीर के नाम से विख्यात हुआ। कबीर के उत्तराधिकारी और शिष्य धर्मदास के अनुसार भी कबीर का जन्म 1398 ईस्वी (विक्रम संवत 1455) में हुआ। उनकी एक प्रसिद्ध पंक्ति है ‘‘चौदह सो पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ गए/जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट गए।’’

कबीर के जन्म को लेकर एक जनश्रुति प्रचलन में है कि कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ जिसे उसने त्याग दिया तथा वहीं बालक मुस्लिम जुलाहा दम्पत्ति को प्राप्त हुआ और उन्होंने उसका लालन पालन कर कबीर नाम दिया। 

कबीर ने भी अपने वाणी में स्वयं को एकाधिक बार जुलाहा कहा है। उनकी पंक्तियाँ है- ‘‘जाति जुलाहा मति को धीर/हरषि हरषि गुण मैं कबीर।’’ एक अन्य पंक्ति - ‘‘मेरे राम की अभेपद नगरी, कहे कबीर जुलाहा’’ काशी के अतिरिक्त मगहर और आजमगढ़ के बेलहरा को भी कई विद्वान कबीर का जन्मस्थान मानते हैं। 

कबीर की वाणी में अपने समय के प्रचलित धर्मों की जड़ता का प्रतिरोध बड़ी प्रखरता और मुखरता से देखने को मिलता है जो अत्यन्त सघन है। कबीर का चिन्तन, धारणा और मान्यताएँ किसी औपनिषदिक चिंतन अथवा सूफी रहस्यवाद से न आकर अपने अनुभवों से अर्जित ज्ञान का प्रतिसाद है। चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी के बदलते समाज ने न केवल कबीर को गढ़ा अपितु कहा जा सकता है कि उन्हें दंभी होने की सीमा तक स्वाभिमानी बनाया। 

विरोध का कबीर का स्वर बहुत आक्रामक तथा उग्र है। कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के बाह्य आचारों के मुखर आलोचक और विरोधी है। इसलिए वे लिख पाए- ‘‘ब्राह्मण गुरू जगत का, साधु का गुरू नाहीं।’’ एक साखी में वे कहते हैं - ‘‘करता दोसै कीरतन, ऊँचा करि-करि तूण्ड।’’ हिन्दूओं के साथ ही मुसलमानों के प्रति भी उनका दृष्टिकोण अत्यन्त कटु और आलोचनात्मक है। काजी और मुल्लाओं के लिए उनकी टिप्पणियाँ बहुत तीखीं है। वे कहते है-यह सब झूंठी बंदगी, बरियाँ पंच निवाज/साचै मारै झूठी पढ़ी काजी करै अकाज़।’’ हजारीप्रसाद उनकी इसी विशेषता को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं- ‘‘कबीरदास बहुत कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे।’’

कोई जीवन को सीधा देखता हैं, तो शास्त्रों की गवाही नहीं रह जाती, तब अपने अनुभवों की गवाही खड़ी हो जाती है। कबीर ईश्वर में विश्वास के स्थान पर ईश्वर को जानने का अलख जगाते हैं। हमारे बासा और उधार देखने के ढंग को जड़ से बदल देने का अनुपम कार्य करते हैं। 

कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से लिखित रूप में है। जिसके तीन भाग है- साखी, सबद, रमैनी। जहाँ तक कबीर की भाषा का प्रश्न है उसे हम ‘सधुक्कड़ी’ कह सकते हैं। उस समय भारतवर्ष के विभिन्न भागों में साधु-संतों के बीच बोलचाल की यह भाषा रही है। जिसमें अरबी, फारसी, पंजाबी, ब्रज, भोजपुरी, बुंदेलखंडी और खड़ी बोली आदि के शब्द मिलते है।

हिन्दी साहित्य के साहित्यिक विमर्श में कबीर का नाम बहुत ऊँचा है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है लेकिन यह भी कड़वा सच है कि उन्हें स्थान थोड़ी हिचकिचाहट के बाद ही मिला है। कबीर की मान्यता और स्वीकृति का क्षितिज अनुपम और अनूठा है, और यही एकमात्र कारण है की शताब्दियां बीत जाने के बाद भी कबीर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। कबीर मनुष्य समाज की छटपटाहट, नैराश्य और बैचेनियों पर केवल ऊंगली ही नहीं रखते बल्कि जागृत करते हुए उपाय का मरहम भी लगाते है।

 इसलिये आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उनके संबंध में लिखते है ‘‘हिन्दी साहित्य के हजारों वर्षो के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।’’

भारतीय साहित्य की इस महान विभूति को उनकी जन्मजयंती के अवसर पर स्मृति स्वरूप एक विनम्र आदरांजलि। 


देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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