'घबराते क्यों हो'
(1)
अपने मन की बात बताने में आखिर घबराते क्यों हो। अपने सच्चे भाव जताने में जग को फुसलाते क्यों हो। केवल सच्चे मन की चाहत ही हर इंसां को होती है। झूठी बातें सुनकर मितवा हर दृग छिप छिपकर रोती है। फिर तुम खुद ही श्वांग रचाकर दुख का जाल बिछाते क्यों हो। अपने मन की बात बताने में आखिर घबराते क्यों हो।
(2)
कच्ची ईंटों को पकने में माना थोड़ा वक्त लगेगा। मजबूती लाने को घर में निश्चित तन मन कष्ट सहेगा। पर बनते ही ढह जायें जो ऐसे भवनों का होगा क्या। ऐसे बालू के महलों को आखिर आप बनाते क्यों हो। अपने मन की बात बताने में आखिर घबराते क्यों हो। (3)
अपनी गलती जिसने भी मानी उसने जीता जग सारा। लगने लगता है वो इंसां फिर सारे जग को ही प्यारा। दुर्गम राहें आसां होतीं उस जन की फिर इस जीवन में। तो यारा गलती कर फिर फिर खुद का जुर्म बढ़ाते क्यों हो।
अपने मन की बात बताने में आखिर घबराते क्यों हो। (4)
थोड़ी सी हिम्मत करने से नाते गहरे हो जाते हैं।
मन की सच्ची बातें सुनकर मन उजियारे हो जाते हैं। सच्ची खुशियां मिलतीं 'दीपक' रिश्तों के गहराने से। इन रिश्तों की छल कपटों से फिर तुम वाट लगाते क्यों हो।
अपने मन की बात बताने में आखिर घबराते क्यों हो।
- रजनीश मिश्र 'दीपक' खुटार शाहजहाँपुर उप्र
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