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संत कबीर जयंती: विचारों की क्रांति का महापर्व -प्रो . आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी


 [प्रसंगवश – 11 जून: संत गुरु कबीर जयंती]

संत कबीर जयंती: विचारों की क्रांति का महापर्व

[शब्दों में क्रांति, विचारों में आग — यही है कबीर]

     संत कबीरदास—एक ऐसी चिंगारी, जो सदियों बाद भी अंधेरे को भस्म करती है, एक ऐसी वाणी, जो पाखंड की बेड़ियों को तोड़ती है, और एक ऐसा दर्शन, जो मानवता को सत्य और प्रेम की राह दिखाता है। जब भारतीय संत परंपरा का जिक्र होता है, तो कबीर का नाम तूफान की तरह गूँजता है—न झुकने वाला, न थमने वाला। वे न राजसत्ताओं के गुलाम थे, न धर्मों के ठेकेदार। उनकी हर साखी, हर दोहा, हर शब्द एक हथौड़ा है, जो अज्ञान, जातिवाद और ढोंग की दीवारों को चूर-चूर करता है। उनकी जयंती, ज्येष्ठ पूर्णिमा, जो 11 जून 2025 को देश के कोने-कोने में उत्साह के साथ मनाई जाएगी, केवल एक तिथि नहीं, बल्कि एक क्रांति का शंखनाद है—सत्य, समानता और करुणा की चेतना का महापर्व। यह वह दिन है, जब कबीर की आवाज हमें झकझोरती है—जागो, बंदे! पाखंड छोड़ो, सत्य को गले लगाओ।

कबीर का जन्म 15वीं शताब्दी में माना जाता है, हालांकि उनके जन्मकाल को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ स्रोत 1398 को उनका जन्मवर्ष बताते हैं, तो कुछ 1440 के आसपास। उनकी जन्मकथा रहस्य से भरी है—कहा जाता है कि वे काशी (आधुनिक वाराणसी) में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से प्रकट हुए, जिन्हें स्वामी रामानंद का आशीर्वाद प्राप्त था। उनका पालन-पोषण नीरू और नीमा, एक जुलाहा दंपति ने किया। निम्न मानी जाने वाली जाति में जन्मे कबीर ने कभी सामाजिक भेदों को स्वीकार नहीं किया। उनका जीवन इस सत्य का जीवंत प्रमाण है कि आत्मा की शुद्धता और विचारों की ऊँचाई ही मानव की सच्ची पहचान है। कबीर ने निर्गुण भक्ति का मार्ग चुना, जिसमें ईश्वर निराकार, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। उन्होंने मंदिर-मस्जिद के आडंबरों को ठुकराया और ईश्वर को हृदय में खोजने का संदेश दिया। उनका दोहा—“मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में। ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना मैं काबे कैलास में।”—न केवल उनकी आध्यात्मिक गहराई को उजागर करता है, बल्कि धार्मिक पाखंडों पर करारा प्रहार भी करता है।

कबीर की रचनाएँ—दोहे, साखियाँ और शब्द—भाषा की सरलता और विचारों की तीक्ष्णता का अनुपम संगम हैं। उनकी रचनाएँ अवधी, भोजपुरी और हिंदी के मिश्रण में हैं, जो आम जन की जुबान थीं। उनका एक और प्रसिद्ध दोहा—“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”—यह सिखाता है कि सच्चा ज्ञान वह नहीं जो शास्त्रों में कैद हो, बल्कि वह जो प्रेम, करुणा और मानवीयता को जागृत करे। कबीर ने धार्मिक गुरुओं, पंडितों और मुल्लाओं की खोखली विद्वता पर तीखे व्यंग्य किए। उनकी वाणी में जीवन का हर पहलू—सामाजिक असमानता, धार्मिक ढोंग, नैतिकता और आत्म-जागरूकता—स्पष्ट रूप से उभरता है। उनकी रचनाएँ ‘बीजक’, ‘साखी’, ‘शबद’ और ‘रमैनी’ जैसे संग्रहों में संकलित हैं, जो आज भी भक्ति और दर्शन के साधकों के लिए मार्गदर्शक हैं।

कबीर एक गृहस्थ संत थे। उन्होंने लोई नामक महिला से विवाह किया और उनके बच्चे—कमाल और कमाली—थे। गृहस्थ जीवन जीते हुए भी उनका जीवन सादगी, वैराग्य और सत्यनिष्ठा का प्रतीक था। वे समाज में रहकर उसे सुधारने का साहस रखते थे। उनकी शिक्षाओं ने संत रैदास, धन्ना, पीपा जैसे अनुयायियों को प्रेरित किया, और कबीरपंथ आज भी उनके विचारों को जीवित रखता है। कबीर ने नारी को सम्मान दिया और हर रिश्ते को आध्यात्मिकता से जोड़ा। उनका यह विश्वास—“जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।”—सामाजिक भेदभाव को नकारता है और ज्ञान को सर्वोपरि मानता है।

कबीर जयंती का उत्सव केवल धार्मिक आयोजन तक सीमित नहीं है। इस दिन देशभर में कीर्तन, भजन, सत्संग और उनके दोहों पर आधारित गोष्ठियाँ होती हैं। हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में यह पर्व विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है। लेकिन कबीर जयंती का असली मर्म उनके विचारों को आत्मसात करने में है। आज का समाज फिर से जातिवाद, धार्मिक कट्टरता और नैतिक पतन की बेड़ियों में जकड़ा है। ऐसे में कबीर का यह दोहा—“चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।”—हमें याद दिलाता है कि समाज की क्रूर व्यवस्था में हर व्यक्ति पीस रहा है। कबीर इस व्यवस्था को तोड़ने और सत्य, प्रेम व समानता का समाज बनाने के पक्षधर थे। कबीर ने कभी तलवार नहीं उठाई, पर उनके शब्दों में वह शक्ति थी जो राजसत्ताओं और धार्मिक ठेकेदारों को चुनौती दे सके। उनकी वाणी—“मन का साँच झूठे से ऊँचा, साँच बिना सब सून।”—हमें सिखाती है कि सत्य के बिना जीवन निरर्थक है। आज जब हम कबीर जयंती मनाते हैं, तो यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि आत्मपरीक्षण का अवसर है। क्या हम अब भी धर्म और जाति के नाम पर बँटे हैं? क्या हम अब भी सत्य को छोड़कर आडंबरों में जी रहे हैं? कबीर की शिक्षाएँ हमें प्रेम और करुणा का मार्ग दिखाती हैं, जो मानवता को एकजुट कर सकता है।

कबीरदास एक शाश्वत ज्योति हैं, एक ऐसी गूँज जो सदियों बाद भी थमती नहीं। उनकी जयंती हमें पुकारती है—उठो! ढोंग की परतें उतारो, प्रेम की राह अपनाओ, और सच्चा इंसान बनो। यह पर्व केवल एक दिन की श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि हर दिन को कबीरमय बनाने का संकल्प है। उनकी वाणी हमारे अंतर्मन को झकझोरती है, हमें अपने भीतर झाँकने को मजबूर करती है। कबीर की विरासत वह चेतना है, जो हमें समाज के छल और समय की सीमाओं से परे ले जाती है। इस जयंती पर कबीर के विचारों को न केवल याद करें, बल्कि उन्हें अपने जीवन में उतारें। यह वही सच्ची पूजा होगी, जो कबीर के सपनों को साकार करेगी—एक ऐसा समाज, जहाँ न जाति हो, न धर्म का झगड़ा, केवल प्रेम और सत्य का राज हो। कबीर की आवाज आज भी गूँज रही है, और यह हम पर है कि हम उस पुकार को सुनें और उसका अनुसरण करें।

   - प्रो . आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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