काव्य :
काला धन भी उजला होकर डोलेगा
अपनेपन का नाटक करने वालों का
कच्चा चिट्ठा कौन भला अब खोलेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से
काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
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जनहित की बातों का तो अब क्या कहना
झूठे वादों में फँसकर पीड़ा सहना
बनीं योजनाएँ जाने किसके हित में
निर्बल को तो बस आँसू पीकर रहना
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समरसता में भेद-भाव जब घुस जाए
तिकड़म के विपरीत कौन फिर बोलेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से
काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
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कथनी- करनी में अंतर जब से आया
दुष्टों ने बस सबके मन को बहलाया
कूटनीति की चाल करे खिलवाड़ यहाँ
जिसने लाचारों को इतना दहलाया
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होगा फिर उपहास यहाँ पर कितनों का
पैसे वाला जब निर्धन को तोलेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से
काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
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लोग गधे को बाप बनाते मतलब से
उसके बाद घास उसको वे क्यों डालें
जिसकी लाठी भैंस उसी की होती है
यही भाव तो वे अपने मन में पालें
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जैसी हवा, पीठ वैसी करने वाला
बहती गंगा में पापों को धो लेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से
काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
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आस्तीन के साँप जहाँ पर भी पलते
सच्चे मानव से वे अब कितना जलते
भाई-चारे की बातों में जहर घुला
सद्भावों का पहन मुखौटा वे छलते
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चालाकी से जो मिठास को बाँट रहा
सीधा-सादा साथ उसी के हो लेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से
काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
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- उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
'कुमुद-निवास' , बरेली (उ० प्र०)
मोबा०- 98379 44187