काव्य : ग़ज़ल
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ग़रीबों के नसीबों में कभी सब कुछ नहीं होता|
कभी रोटी नहीं होती कभी भुर्ता नहीं होता|
कभी जो हार जाता ज़िन्दगी से वास्ते उसके,
ये ज़ाहिर है मुसीबत में कोई रस्ता नहीं होता|
उसी को ज़िन्दगी देती मगर ये मात भी लेकिन,
वो जिस इंसान में जीने का ही ज़ज्बा नहीं होता|
यतीमों के तो हक़ में पैरहन पूरे कहाँ होते,
कभी पतलून भर होता कभी जामा नहीं होता|
क़बीले का जो मुखिया वो तो हिस्से में बटा होता,
वो फरमाइश में जाता टूट वो ज़िन्दा नहीं होता|
अभी के दौर में हर रोज़ बलबे देख इस दिल को,
कभी गम भी तो होता है मगर ज़्यादा नहीं होता|
बदलते इन रिवाज़ों में कई बदलाव हैं आए,
बड़ों के सामने इज़्ज़त का अब पर्दा नहीं होता|
ये महगाई के आलम में कमाने की जुगत में ही,
वो पिस जाता है आखिर ख़ुश कभी बंदा नहीं होता|
कभी हालात भी होते निबाले हैं नमक ग़ायब,
कभी दोनों मयस्सर होते ये अक्सर नहीं होता|
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प्रदीप मणि तिवारी ध्रुव भोपाली भोपाल मध्यप्रदेश,16/11/2024
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