काव्य : यादें
नीले आसमान की छत
के नीचे खपरैल वाली छतों का दौर जिया है मैंने,
बहती नदी से ,घर की खुली खिड़कियों से बात की है मैंने
घर के बाहर छोटी सी बाड़ी में
फूल लगाता था कुछ गेंदों के,
गुड़हल से बातें करता था
बहुत लुभाते थे मुझे,
मैं पूछा करता था,तुम खुशबू क्यों नहीं देते,
हवा के झोंको में लहरा के
इठला देते थे सभी फूल,
कुछ गुलाब,कुछ सदाबहार,
कुछ सफेद बेला के फूल भी,
सब समेट कर यादो में
रख लिए है मैंने,
यादें ,अभी भी मुस्कुराती हैं
मेरे साथ,जब मैं अकेला होता हूं,
या ,यूं कहूं जब यादों के साथ होता हूं,
सहेज रखी है जिन्दगी भी मैंने,
कब तक मैं साथ रखूंगा इन्हें,
यादों को,फूलों को,नदी को,नीले आकाश को,खपरैल वाले घर को,
और जिन्दगी सहेज कर रखेगी कब तक मुझे,
पक्के कंक्रीट के घर में,
अब वैसी यादें,नहीं समेटता है
*ब्रज* मेरा मन.
- डॉ ब्रजभूषण मिश्र , भोपाल
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