काव्य :
ग़ज़ल
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ये आफ़ताब मुसलसल सफ़र में रहता है|
वो ज़ीस्त दे के हमारे ज़िगर में रहता है|
कोई वतन के लिए जान जो लुटा बैठा,
वो तब्सिरा में सुना है सिफर में रहता है|
जो गाँव का है नहीं ज़िल्लतें वो जाने क्या,
जिसे है अम्न मुसलसल शहर में रहता है|
जो सरहदों में सिपाही वतन के हैं, ज़िल्लत,
कोई वो जाने भी कैसे जो घर में रहता है|
नवाब है वो परिन्दा भी तो जमाने में,
बगैर फिक्र वो मुसलसल शज़र में रहता है|
ये वक्त भी तो मुसाफ़िर गुज़र ही जाए वो,
कभी ये सुब्ह कभी दोपहर में रहता है|
किसी को चैन मिले कोई ज़िल्लतों में भी,
कोई जहाँ में मगर पुर असर में रहता है|
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प्रदीप मणि तिवारी ध्रुव भोपाली भोपाल मध्यप्रदेश,
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