काव्य :
महाकुंभ
सनातन का संस्कार ,है कुंभ में
मन की भक्ति ,अपार है कुंभ में
बूंद अमृत कलश की, छलकती
संगम त्रिवेणी की धार है, कुंभ में
आस्था ,जन सैलाब बन ,उमड़ रही
प्रयाग में,अखिल संसार है,कुंभ में आस्थाएं,मान्यताएं,अखाड़े हैं बहुत
भक्ति के हैं,रूप व श्रृंगार यहां, कुंभ में
शासन,अनुशासन ,कौशल विशेष हैं
कलाएं,सजावट, हैं विविध प्रकार की
सुविधाएं,साधन, हैं समाधान, सभी ही
बीमारों के उपचार भी,उपलब्ध हैं कुंभ में
रंग बहुरंग हैं, है वेशभूषाएं विभिन्न
रंगोलियां सजी दिखें,दीवारें है चित्रमय
अनेक श्रद्धाएं, करती यहां समागम
भक्तों के हैं, विभिन्न प्रकार,यहां कुंभ में
कोई है धनी नहीं ,न ही निर्धन कोई
ऊंच नीच,जाति पात,मिथ्या है सब ही
क्षेत्र,प्रान्त,अनेकता में एकता ही दिखती
नही है भेद की ,कोई दीवार, यहां कुंभ में
नियम,कानून,धैर्य का अनुशासन हम रखें
पूजा,पाठ,स्नान ,ध्यान का, अमृत चखें
गंगा के जल की पवित्रता ,समो ले मन में
*ब्रज*,कर लें भवसागर पार हम कुंभ में
- डॉ ब्रजभूषण मिश्र , भोपाल