काव्य :
ग़ज़ल
सियासी नफ़रतों की आग ये बुझानी है
ख़ुलूस प्यार वफ़ा से ही जीत पानी है
ये धर्म मज़हबों की जंग अब तो बंद करो
हरेक शख़्स में इंसानियत जगानी है
इरादे हमने ज़माने में कर दिये ज़ाहिर
*वतन की आबरू हर हाल में बचानी है*
सबक ये हमको बुजुर्गों से ही मिला अपने
कि पहले देश है फिर बाद ज़िन्दगानी है
वतन परस्ती की ग़ज़लें यूँ हम सुनाते हैं
इन्हीं से देश में हमको अलख जगानी है
कुकर्मियों की सज़ा और अब कड़ी कर दो
वतन की बेटियों की लाज अब बचानी है
ये कौल *कामिनी* करती है रूबरू सब के
कि दिल ओ -जान हमें देश पर लुटानी है
- डॉ कामिनी व्यास रावल
उदयपुर राजस्थान
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काव्य
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