दानवीर कर्ण
विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत से भला कौन परिचित नहीं है।
धर्म और अधर्म के बीच हुए महासमर की महागाथा है महाभारत। जो पहले जयसंहिता नाम से रचित हुआ और कालांतर में महाभारत नाम से विख्यात।
कौरवों और पांडवों के बीच हुए इस महासंग्राम का एक महानायक था कर्ण जो सूत पुत्र और अधीरथ भी कहा गया।
कुंती और भगवान सूर्य का ये महा पराक्रमी पुत्र दानवीर कर्ण नाम से भी सुविख्यात हुआ।
दर असल एक बार वासुदेव श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे! पार्थ इस पृथ्वी पर कर्ण से बड़ा कोई दानी नहीं।
परंतु अर्जुन को ये अच्छा नहीं लगा, वो बोला हे! मधुसूदन, भला महाराज युधिष्ठिर से भी बड़ा कोई दानवीर है?
जो स्वयं धर्मराज के अवतार है।
तब देवकी नंदन ने अर्जुन को साथ लिया और भेष बदल कर धर्मराज युधिष्ठिर के महल पहुँच गए, उस समय बड़ी मूसलाधार बारिश हो रही थी।
ब्राह्मण भेष में आए गिरिधारी और अर्जुन को महाराज युधिष्ठिर ने उचित सम्मान देते हुए पूछा, हे! ब्राह्मण देव मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ कृपया आदेश करें।
मुरलीधर बोले हे! महाराज हमें कुछ चंदन की सुखी लकड़ियाँ चाहिए।
युधिष्ठिर बोले, प्रभो! इस समय बाहर भारी बारिश हो रही है आप आज रात यहीं विश्राम करें, कल मैं आपके लिए लकड़ियों का प्रबंध करने की कोशिश करूंगा।
हमारे पास इतना समय नहीं है ये कह कर मोहन और पार्थ वहाँ से चल दिए।
अब वे कर्ण के महल गए, वहाँ भी अपने आने का प्रयोजन बताया।
कर्ण ने प्रणाम करते हुए कहा, हे! ब्राह्मण देव आप भोजन आदि ग्रहण कर लीजिए तब तक मैं लकड़ियों का प्रबंध करता हूँ।
ये कह कर कर्ण ने अपना धनुष उठाया और बाणों से अपने महल के दरवाजों को तोड़ कर लकड़ियों का ढेर लगा दिया।
तब अर्जुन को समझ आया कि कर्ण सचमुच दानवीर है।
जन्म से ही कवच कुंडल के साथ उत्पन्न होने वाले कर्ण ने अर्जुन के पिता देवराज इंद्र को पहचानने के बावजूद भी अपने कवच कुंडल दान कर दिये थे।
धन्य हो दानवीर कर्ण।
- ब्रह्मानंद गर्ग सुजल
जैसलमेर, राज. ।