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सर्वधर्म-समभाव --उषासक्सेना,भोपाल


 सर्वधर्म-समभाव


सर्वे भवन्तु सुखिन:

सर्वे सन्तु निरामया :।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ।।

अर्थात:-सभी सुखी रहें और निरोगी सभी अच्छे दिखें किसी को भी कोई किसी प्रकार का दु:ख न हो ।यह हमारी वैदों की वह प्रार्थना है जिसके माध्यम से शान्ति पाठ के समय अंत में कहा जाता है ।इसमें हमारे उस समय के ऋषि मुनियों की लोक मंगल एवं लोक कल्याणकारी भावना परिलक्षित होती है ।सभी के कल्याण में ही हमारा कल्याण हैं। 

       सनातन वैदिक आर्य सभ्यता  पर ही हिन्दू धर्म आधारित है । हिन्दू धर्म अपने सोच और चिंतन में उतना ही उदात्त है जितनी की यह संस्कृति । सभी को अपने आपमें संरक्षित करने वाला हिन्दू धर्म का मूल आधार सर्वधर्म -समभाव पर आधारित है ।सर्वधर्म का अर्थ है सत्य पर आधारित सबका धर्म ,जिसको व्यक्ति ने अपनी धारणा से आत्मा में धारण किया है ।  धर्म को धारण करने की अवधारणा अवश्य  पृथक हो सकती है किंतु उन सभी का गंतव्य एक ही होने से वह सबका धर्म है। समभाव सभी में समानता का भाव जागृत करते हुये सभी के अंदर एक दूसरे के प्रति सद्भावना और सौहार्द जागृत करते हुये ऊंच नीच की गहरी खाई को पाटता है। ।वस्तुत:हिन्दू धर्म का मूल आधार ही शाश्वत सत्य पर आधारित सनातन वैदिक आर्य सभ्यता की अवधारणा है । यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है जिसे सबसे पहले सिंधु नदी के तट पर विकसित  होने के कारण  इसे सिंधु-घाटी की सभ्यता

भी कहा जाता है ।"स"को "ह" कहे जाने पर यह हिन्दू धर्म हो गया  और सिंधुके नदी के इस पार रहने वाले हिंदुस्तानी ।जब कि यह धर्म न होकर जीवन शैली है ।जिसके आधार पर व्यक्ति अपना व्यतीत करता है । इस तरह से सत्य पर आधारित सभी धर्मों का उद्देश्य एक  है फिर भेद कैसा ?भेद तो उसके तौर तरीके और जीवन शैली में है जिस पर उस स्थान के वातावरण, प्रकृति  परिवेश ,रहन सहन ,खान-पान आदि का प्रभाव होने से वह पृथक परिलक्षित होता है ।

गंतव्य का पथ पृथक होने पर ही पथ की भिन्नता हमें एक से अनेक में बांट देती है ।

धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की *धृ*धातु से हुई जिसका अर्थ है 

धारण करना । इस तरह से यह वह अवधारणा है जिसे व्यक्ति व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही रूपों में धारण करता है । जो सामान्य रूप से पदार्थ मात्र का 

प्राकृतिक  गुण है । इस तरहसे हम देखते हैं कि हर वस्तु का वस्तुत्व ही उसका धर्म है अर्थात,

*धारणात् धर्म इत्याहु:*

धृति क्षमा दमोऽस्तेयं 

शौचमिन्द्रिय निग्रह:।

धी विद्या सत्य कामक्रोधो

दशकम् धर्म लक्षणम् ।।

यह दस धर्म के मूल आधार वह लक्षण हैं जो सभी धर्मों में पाये जाते हैं। इन्हीं के कारण सर्वधर्म समभाव की उत्पत्ति होती है ।

सर्वधर्म के कारण ही समभाव की भावना उत्पन्न होती है जो

* वसुधैव कुटुम्बकम् *के आधार पर हमारे  ऋषि मुनियों ने वेदों की रचना करते समय अपने इसी मूलभाव को केन्द्र मेंरख कर उसकी रचना की । सर्वधर्म समभाव ही वेदों का मूल आधार है । सद्भावना से सौहार्द्र और आपसी सहयोग सहिष्णुता की भावना उत्पन्न होती है । आज  भूमंडल वैश्वीकरण के तकनीकी युग में हमें इसकी विशेष आवश्यकता है तभी हम विकास के पथ पर आगे बढ़ कर विश्व में अपना स्थान प्रतिस्थापित कर पायेंगे ।धर्म के विभिन्न पथ गंतव्य एक होने फर भी पृथक-पृथक होने से विचारों में मतभेद उत्पन्न

करते हैं । भारत विश्वगुरू बने और उसका वसुधैव कुटुम्बकम् का सपना साकार हो इसके लिये समानता के स्तर पर समभाव का होना आवश्यक है ।

हमारे संविधान में स्वतंत्रता के साथ ही भारत के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समानता का अधिकार प्राप्त है ।

सर्वधर्म का सिद्धांत भी हमारी धर्म निरपेक्षता को सिद्ध करता है। सर्वधर्म समभाव को अपना कर हु हम विश्वगुरु के पद पर सुशोभित हो* वसुधैव कुटुम्बकम्* के सपनै को साकार कर सकते हैं ।

 - उषासक्सेना,भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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