काव्य :
शुरुआत
डूबता है, तब भी उसमें आस
होती है,प्रभात की
शांत हो यदि कोई तो होता उनमें
साहस उत्पात की।
अब जरुरत है,
फिर से एक नयी शुरुआत की।
थिरकता है, मृग जब मस्त चाल में
बैठता है बहेलिया उसके घात को।
खिलाफ कि बात फैलती ऐसे कि,
भयावह दावानल हो जैसे रात की।
अब जरुरत है,
फिर से एक नयी शुरुआत की।
आदमी-आदमी को जनता कहाँ है?
जानता तो नाम सुन बात न करता जाति की।
यदि जाति से भी पहचान न हो
बात करेगा बेझिझक उसके काम की
अब जरुरत है,
फिर से एक नयी शुरुआत की ।
हो अँधेरी रात या छाई घनघोर घटा,
मिटेंगे सब कुछ है जरुरत ताप की ।
दर्द कि कराह हो या बेबस लाचार,
आन पड़ी है हरने को संताप की ।
अब जरुरत है,
फिर से नयी शुरुआत की।
- उमेन्द्र निराला
इलाहबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज (उ. प्र.)
ग्राम हिंनौती, जिला -सतना, मध्यप्रदेश