काव्य :
कुम्भ का पुण्य
आया नक्षत्र परम पावन ये, प्रयागराज की धरती पर।
समय बताया कुछ ज्योतिष ने
एक सौ चौबालीस की गिनती कर
बरष इतने बीत गये तब ये समय सुहाना आया है।
इसलिए भरा है कुम्भ का मेला
पुण्य कमाने संगम पर।।
किये पाप मानुष ने अनगिन, जिनका पारावार नहीं,
इतनी सरलता से कट जायेंगे,
ऐसा तो कारोबार नहीं।
सात जन्मों का लेखा जोखा, होता है मानव तन में,
इसी जनम में पुण्य कमाते, ऐसा तो कोई व्यापार नहीं।
सोच समझ ले वंदे बात ये,
कुम्भ से अमृत छलका था।
लीला थी ये जगत नियंता की,
वरना कुम्भ तो न वो हल्का था।
छलकाई थीं बूंदें उससे पुण्य कमाने धरती पर,
देव दनुज सब नरतन में आते,
उनके कर्मो का ही बदला था।
पुण्य धरा पर गये जो जान से, उनकी मौत घड़ी आई।
मौत बहाना करती है खुद बचकर के निकलने को,
होनी तो होकर ही रहती,
ताहि तहां पर ले जाई।।
था प्रबंध शासन का चौकस, पर उच्च पदों पर जो बैठे हैं,
उनके लिए थी अलग व्यवस्था, जो महलों में रहते हैं।
जनता आम गरीब जो होती,
मीलों घिसटती है चलती ,
नाजुक हैं सब पैसे वाले, जो वाहन बड़े ले चलते हैं।
उनकी खातिर राह रोक दी, गरीबों को संगम जाने को।
उमड़ पड़ा सैलाब, वहाँ तब,
मिली जगह न आने को।
भगदड़ मच गई उसी वक्त जब
आये थे सब कुम्भ नहाने
पावन बेला में अमृत स्नान कर
कुम्भ का पुण्य कमाने को।।
- सुषमा वीरेंद्र खरे, जबलपुर