काव्य :
अमराई / बसंत
अमराई की यादें,
स्पंदित कर जाती हैं मेरा
तन और मन,
घूमने लगते हैं विचार,
ओढ़ कर, पोशाक *बसंत* की,
किशोर उम्र गुनगुनाने लगती है,
दृश्य चित्रफलक से दिखने लगते हैं,
चमक उठते हैं मेरे नयन,
ज्यों विचरता हो कोई
वन,उपवन,आम के बाग,
देखता हो,शाख आमो की ,
लदी हुई, आम्र पुष्प मंजरो से झुक झुक जाती हुई,
सुगंधित पुरवा पवन मध्य,
लहलाते पीले सरसों फूलो के खेत बीच,
मेरा मन ,टहलने लगता है, बौराता सा है,*किशोर ब्रज*,
सोचता है,कुछ दिनों बाद
चुपचाप,बौर के फूलों को गिराकर
अमिया आ बैठेगी,इन आम की डालियों पर,
लोग झूले झूलेंगे,पेड़ की डालों पर रस्सिया बांधकर,
ये बसन्त तन और मन में,
हर वर्ष ,
यों ही प्रवेश कर जाता है,
अमराई के बहाने,
वियोगिनी कहने ही वाली है,
झूले पड़े तुम चले आओ,
बसन्त और फाग,
सताने लगे हैं मिलकर, मुझे
- डॉ ब्रजभूषण मिश्र , भोपाल
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