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रंगोत्सव पर्व होली : प्रकृति से संवाद का अवसर - डॉ घनश्याम बटवाल , मंदसौर


 ∆ - प्रसंगवश - रंगपंचमी पर विशेष

रंगोत्सव पर्व होली : प्रकृति से संवाद का अवसर

( डॉ घनश्याम बटवाल , मंदसौर )

त्यौहार तो हमारे भारतवर्ष में 365 दिवस ही कोई न कोई होता है , विविधता में एकता हमारे भारत की विशेषताओं में शामिल है , पर कुछ त्यौहार वैश्विक और सम्पूर्ण देश में एकसाथ आते हैं जिनमें रंगोत्सव पर्व होली विशेष है । 

इसके कई पौराणिक कथानक प्रचलित हैं पर निश्चित ही उत्साह और उमंग का पर्व है होली । यह ऊंच नीच भेदभाव मिटाकर जोड़ने वाला त्यौहार है । सामाजिक समरसता के प्रतीक इस होली पर्व के सामाजिक लाभ तो है ही पर साथ ही वैज्ञानिक और तथ्यात्मक लाभ भी समाज में सामने आए हैं ।

भारतीय संस्कृति में उत्सव वैज्ञानिक एवं प्रकृति के सूक्ष्म संवेगों से नित्य एकीकृत है इसीलिए हमारे प्रत्येक त्यौहार और उत्सव का विशिष्ट वैज्ञानिक आधार  है । इस कड़ी में फ़ाग महोत्सव , रंग पर्व होली का उत्सव नवीन आनंद रस और उत्साह को संचारित करता है । देहाभिमान से ऊपर उठकर सामाजिक समरसता , समन्वय और परस्पर प्रेम को रंग और ग़ुलाल के साथ उल्हास से जोड़ने का पर्व ही रंगोत्सव होली महोत्सव है ।

होली का त्यौहार चल रहा है धुलेंडी से एक पखवाड़े तक चलेगा । वार्षिक उत्सव और त्यौहार में यह सबसे लम्बा चलने वाला उत्सव है , जब बात होली की होती है तो उल्लास के अतिरेक का अहसास खुद ब खुद हो जाता है। आज के भागम-भागम दौर में जब हमारी सोच, रहन-सहन और खान-पान पूरी तरह से कृत्रिम हो चला है तो शहरी जीवन में लोग तमाम मनोकायिक रोगों से ग्रस्त हो गए हैं। योग और प्राकृतिक चिकित्सा का भी यह निष्कर्ष है कि मन स्वस्थ होने पर हम निरोगी होते हैं। जब हम अपनी भावनाओं व विचारों को कृत्रिमता के साथ अभिव्यक्त करते हैं तो नकलीपन से उपजा तनाव हमें बीमार बनाता है। 

आधुनिक चिकित्सा के शोध-अनुसंधान भी स्वीकारते हैं कि सकारात्मकता हमारे उपचार चिकित्सा में मददगार होती है। वह दवा का काम करती है, अच्छे विचारों व धनात्मकता से हमारे शरीर के स्वास्थ्यवर्धक हॉर्मोन्स निकलते हैं। पश्चिमी देशों में हुए अध्ययन भी बताते हैं कि आस्थावान और सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोग स्वस्थ रहते हैं। अब चाहे धर्म हो या अध्यात्म, उसके मूल में परोपकार की भावना होती है। यह परोपकार की भावना ही हमारे लिये उपकार का काम करती है। 

आपने देखा - सुना होगा सोशल मीडिया पर एक जुमला अक्सर घूमता रहता है– ‘दोस्तो दिल खोलकर जीओ, अन्यथा डॉक्टर आपका दिल खोलेगा।’ 

यह सर्वविदित है कि हमारे जीवन की कृत्रिमता, तनाव, अवसाद आदि रक्तचाप, हृदय रोग बढ़ाते हैं। बहरहाल, होली का त्योहार है। जो धुलेंडी से नावणी तेरस तक अलग अलग क्षेत्रों में अपने अपने सामाजिक परिवेश में मनाया जा रहा है । 19 मार्च को रंगपंचमी , 21मार्च को शीतला सप्तमी और 27 मार्च रंग त्रयोदशी ( नावणी तेरस ) तक हमारे पूर्वजों ने इस त्योहार की संकल्पना इसी मकसद से की होगी कि समाज में दैनिक जीवन की एकरसता टूटे। लोग दिल खोल के मिलें। जब हम रंगों से सराबोर होते हैं तो न कोई गोरा रह जाता है न काला। तब हम नहीं पहचान सकते हैं कि वह किस धर्म, संप्रदाय या वर्ग का है। अपने मित्रों व रिश्तेदारों से हम महीनों नहीं मिलते। होली हमें मिलने-जुलने का संवाद का मौका देती है। 

खासकर जब बात होली की होती है तो उल्लास के अतिरेक का अहसास खुद ब खुद हो जाता है। समाज और लोग अतीत को स्मरण करते हुए होली के हुड़दंग और परस्पर रंग तरंगों में खो जाते हैं वहीं वर्तमान परिदृश्यों की तुलना भी करते दिखाई देते हैं । दृश्य बदले परिदृश्य बदले पर त्यौहार वही है और होली भी हर साल आती है ।

परिवार के बड़े बूढ़े बताते हैं कि तब हम कैसे होली मनाते थे , होली और रंगोत्सव पर्व एक ऐसा त्योहार जो हर किसी को अपने गढ़े कृत्रिम दायरे से बाहर निकलने को प्रेरित करता है। जिसमें व्यक्ति खुद को मौलिक रूप में महसूस कर सके। उसे बोध हो सके कि मनुष्य और मनुष्यता के क्या मायने हैं। आज शहरीकरण के दौर में भागम-भाग की जिंदगी में हमने इतनी कृत्रिमताएं ओढ़ ली हैं कि हम सहज रह ही नहीं पाते। संपत्ति, पद और रसूख जैसे न जाने कितने दंभ पाले व्यक्ति समाज में घुलमिल ही नहीं पाता। याद कीजिए कोरोना काल के काले दौर को, जिसमें हमने महसूस किया कि सामाजिकता के क्या मायने हैं? 

विचारणीय है आजकल खून के रिश्तों में कई अमानवीय कहानियां सामने आईं। दरअसल, हम अपनी सामाजिक सक्रियता और उसके सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों पर कभी विचार नहीं करते। सही मायनों में होली के त्योहार का वातावरण हमें तनाव व कई तरह की जटिलताओं से मुक्त कर देता है। एक दिन व्यक्ति अपने मूल रंग को भूलकर सतरंगी रंगों में सराबोर हो जाता है। सभी विशिष्ट पहचानों से मुक्त होकर हर छोटे-बड़े से मिलना, रंग लगाना और गले मिलना  , शरीर ही नहीं आंखों व मन से जुड़ाव व्यक्ति को सहज व हल्का कर देता है। तमाम वैज्ञानिक अनुसंधान व चिकित्सक बार-बार चेता रहे हैं कि मन का गुबार , घुटन और मानसिक जकड़न निकालने से व्यक्ति स्वस्थ महसूस करता है। अमेरिका समेत कई पश्चिमी देशों में कई ऐसे शोधकर्ताओं को मानव सेहत के लिये जरूरी व्यवहार की व्याख्या करने हेतु उन विषयों पर नोबेल पुरस्कार मिले हैं जो हमारे देश में त्योहारों के मर्म और योग में वर्णित हैं। 

होली का त्योहार ऐसी मौसम संधि पर आता है बसंत ऋतु का सूचक भी है जब सर्दी की विदाई और गर्मी की दस्तक होती है। प्रकृति अपने उरोज पर होती है। कुदरती रंगों से सजे फूल हमें मंत्रमुग्ध कर रहे होते हैं। यह पर्व हमें प्रकृति से संवाद का अवसर भी देता है। दरअसल, रंग परिवर्तन हमारे व्यवहार को परिवर्तित करता है।

 जब बात होली की होती है तो उल्लास के अतिरेक का अहसास खुद ब खुद हो जाता है। आज के भागम-भागम दौर में जब हमारी सोच, रहन-सहन और खान-पान पूरी तरह से कृत्रिम हो चला है तो शहरी जीवन में लोग तमाम मनोकायिक रोगों से ग्रस्त हो गए हैं। योग और प्राकृतिक चिकित्सा का भी यह निष्कर्ष है कि मन स्वस्थ होने पर हम निरोगी होते हैं। जब हम अपनी भावनाओं व विचारों को कृत्रिमता के साथ अभिव्यक्त करते हैं तो नकलीपन से उपजा तनाव हमें बीमार बनाता है। 

आधुनिक चिकित्सा के शोध-अनुसंधान भी स्वीकारते हैं कि सकारात्मकता हमारे उपचार में मददगार होती है। वह दवा का काम करती है, अच्छे विचारों व धनात्मकता से हमारे शरीर के स्वास्थ्यवर्धक हॉर्मोन्स निकलते हैं। पश्चिमी देशों में हुए अध्ययन भी बताते हैं कि आस्थावान और सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोग स्वस्थ रहते हैं। अब चाहे धर्म हो या अध्यात्म, उसके मूल में परोपकार की भावना होती है। यह परोपकार की भावना ही हमारे लिये उपकार का काम करती है। सोशल मीडिया पर एक जुमला अक्सर घूमता रहता है– ‘दोस्तो दिल खोलकर जीओ, अन्यथा डॉक्टर आपका दिल खोलेगा।’ 

यह सर्वविदित है कि हमारे जीवन की कृत्रिमता, तनाव, अवसाद आदि हृदय रोग बढ़ाते हैं। बहरहाल, होली का त्योहार है। जो धुलेंडी से नावणी तेरस तक अलग अलग क्षेत्रों में अपने अपने सामाजिक परिवेश में मनाया जा रहा है । 19 मार्च को रंगपंचमी , 21मार्च को शीतला सप्तमी और 27 मार्च रंग त्रयोदशी ( नावणी तेरस ) तक हमारे पूर्वजों ने इस त्योहार की संकल्पना इसी मकसद से की होगी कि समाज में दैनिक जीवन की एकरसता टूटे। लोग दिल खोल के मिलें। जब हम रंगों से सराबोर होते हैं तो न कोई गोरा रह जाता है न काला। तब हम नहीं पहचान सकते हैं कि वह किस धर्म, संप्रदाय या वर्ग का है। अपने मित्रों व रिश्तेदारों से हम महीनों नहीं मिलते। होली हमें मिलने-जुलने का मौका देती है। 

आफिस के तनाव व कामकाज व्यापार व्यवहार , खेती किसानी पढ़ाई लिखाई महिलाओं सहित सभी वर्गों को रूटीन जिंदगी से राहत मिलती है। रंगों का भी अपना नशा होता है। होली खेलने के बाद हमें अच्छी नींद आती है। रंग भी हमें सहजता-सरलता का नशा देते हैं। हम खुलकर मिलते-जुलते हैं, जिससे हल्का महसूस करते हैं।सही मायनों में कोई भी त्योहार हो, वह दैनिक जीवन की उदासीनता को दूर करने के लिये ही होता है। एक नई ताजगी व ऊर्जा का संचार करना ही पर्व का मकसद होता है। खासकर जब बात होली की होती है तो उल्लास के अतिरेक का अहसास खुद ब खुद हो जाता है। समाज और लोग अतीत को स्मरण करते हुए होली के हुड़दंग और परस्पर रंग तरंगों में खो जाते हैं वहीं वर्तमान परिदृश्यों की तुलना भी करते दिखाई देते हैं । दृश्य बदले परिदृश्य बदले पर त्यौहार वही है और होली भी हर साल आती है ।

होली और रंगोत्सव पर्व एक ऐसा त्योहार जो हर किसी को अपने गढ़े कृत्रिम दायरे से बाहर निकलने को प्रेरित करता है। जिसमें व्यक्ति खुद को मौलिक रूप में महसूस कर सके। उसे बोध हो सके कि मनुष्य और मनुष्यता के क्या मायने हैं। आज शहरीकरण के दौर में भागम-भाग की जिंदगी में हमने इतनी कृत्रिमताएं ओढ़ ली हैं कि हम सहज रह ही नहीं पाते। संपत्ति, पद और रसूख जैसे न जाने कितने दंभ पाले व्यक्ति समाज में घुलमिल ही नहीं पाता। याद कीजिए कोरोना काल के काले दौर को, जिसमें हमने महसूस किया कि सामाजिकता के क्या मायने हैं?

होली मिलने जुड़ने और समरस होने का रंगारंग त्यौहार है आओ मिलकर मनाएं जीवन में खुशियों का संचार करें ।

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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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