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अनदेखे सबूत, अनसुनी सच्चाईअनदेखे सबूत, अनसुनी सच्चाई : सोशल मीडिया ट्रायल का सच : सोशल मीडिया ट्रायल का सच - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)


 अनदेखे सबूत, अनसुनी सच्चाई :  सोशल मीडिया ट्रायल का सच

[न्याय की चुप्पी बनाम डिजिटल शोर: किसकी सुनी जाए?]

    न्याय वह पवित्र अग्नि है, जो समाज की नैतिकता को जलाए रखती है, लेकिन जब यह अग्नि सोशल मीडिया की आंधी में बेकाबू होकर भड़कने लगती है, तो वह राख में बदलने की धमकी देती है। आज का युग डिजिटल क्रांति का युग है, जहाँ हर व्यक्ति के पास न केवल आवाज़ है, बल्कि उसे लाखों तक पहुँचाने की ताकत भी है। लेकिन यह ताकत जब बिना सोचे-समझे, बिना सबूत और बिना प्रक्रिया के किसी को दोषी ठहराने के लिए इस्तेमाल होती है, तो सवाल उठता है — क्या यह न्याय है, या भीड़ का उन्माद? सोशल मीडिया ट्रायल, यानी जनता की अदालत में होने वाली यह सुनवाई, न केवल व्यक्ति के जीवन को तहस-नहस कर देती है, बल्कि लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को भी चुनौती देती है।

सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति को एक नया आयाम दिया है। यह वह मंच है, जहाँ एक आम आदमी अपनी बात को दुनिया के सामने रख सकता है। लेकिन यही मंच तब खतरनाक हो जाता है, जब यह आवाज़ें तथ्यों की जगह भावनाओं, संदेहों की जगह अफवाहों और निष्पक्षता की जगह पक्षपात का रूप ले लेती हैं। हाल के वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ किसी व्यक्ति पर आरोप लगते ही सोशल मीडिया पर उसका चरित्र, उसकी निजता और उसका भविष्य तार-तार कर दिया गया। हैशटैग ट्रेंड करने लगते हैं, और देखते ही देखते लाखों लोग बिना किसी ठोस सबूत के एक व्यक्ति को अपराधी मान लेते हैं। यह डिजिटल भीड़तंत्र न तो कानूनी प्रक्रिया का इंतज़ार करता है, न ही यह समझने की कोशिश करता है कि हर कहानी के दो पहलू हो सकते हैं। यह त्वरित न्याय की माँग करता है, लेकिन यह भूल जाता है कि जल्दबाज़ी में दिया गया फैसला अक्सर अन्याय का कारण बनता है।

भारत जैसे देश में, जहाँ न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति और लंबित मुकदमों की संख्या आम आदमी के धैर्य की परीक्षा लेती है, सोशल मीडिया का यह रूप समझ में आता है। लोग निराश और हताश होकर सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं, ताकि उनकी आवाज़ सुनी जाए। कई बार यह मंच उन मामलों को उजागर करता है, जिन्हें मुख्यधारा की मीडिया नज़रअंदाज़ कर देती है। उदाहरण के लिए, कई गंभीर अपराधों में सोशल मीडिया के दबाव के कारण पुलिस और प्रशासन को त्वरित कार्रवाई करनी पड़ी। लेकिन आवाज़ उठाना और फैसला सुनाना दो अलग-अलग चीज़ें हैं। जब सोशल मीडिया पर लोग बिना पूरी जानकारी के किसी को दोषी ठहरा देते हैं, तो वे न केवल उस व्यक्ति के अधिकारों का हनन करते हैं, बल्कि कानूनी प्रक्रिया को भी कमज़ोर करते हैं। एक न्यायाधीश, जो समाज का हिस्सा है, सोशल मीडिया के इस दबाव से पूरी तरह अछूता नहीं रह सकता। ऐसे में निष्पक्षता बनाए रखना एक चुनौती बन जाती है।

सोशल मीडिया ट्रायल का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह तथ्यों को नजरअंदाज कर अफवाहों को पंख लगाता है। एक वायरल पोस्ट, उत्तेजक वीडियो या अधूरी जानकारी वाला स्क्रीनशॉट ही सच का आधार बन जाता है। यह ट्रायल अक्सर तथ्यों से परे, जाति, धर्म, लिंग या राजनीतिक विचारधारा के आधार पर पक्षपातपूर्ण हो जाता है। परिणामस्वरूप, समाज में वैमनस्य और ध्रुवीकरण बढ़ता है, जो सामाजिक एकता को गहरी चोट पहुँचाता है। यह न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि समाज के लिए एक गंभीर और खतरनाक प्रवृत्ति है, जो हमें सतर्कता और जागरूकता की ओर प्रेरित करती है।

इसके अलावा, सोशल मीडिया ट्रायल का प्रभाव केवल आरोपी तक सीमित नहीं रहता। कई बार पीड़ित भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। उनकी निजता का उल्लंघन होता है, उनकी कहानी को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है, और कभी-कभी उन्हें ही ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ता है। यह संवेदनहीनता न केवल पीड़ित के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि उनके लिए न्याय की राह को और कठिन बना देती है। उदाहरण के लिए, यौन उत्पीड़न के मामलों में कई बार पीड़ित की पहचान उजागर हो जाती है, जिससे उनकी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति और बिगड़ जाती है। यह एक ऐसी त्रासदी है, जो सोशल मीडिया की अनियंत्रित शक्ति को दर्शाती है।

पुलिस और जांच एजेंसियाँ भी इस दबाव से अछूती नहीं रहतीं। सोशल मीडिया पर चल रहे अभियानों और ट्रेंडिंग हैशटैग के कारण कई बार उन्हें जल्दबाज़ी में कार्रवाई करनी पड़ती है, जो निष्पक्षता को प्रभावित कर सकती है। कुछ मामलों में राजनीतिक हितों को साधने के लिए भी सोशल मीडिया ट्रायल का दुरुपयोग किया जाता है। यह न केवल कानूनी प्रक्रिया को कमज़ोर करता है, बल्कि लोगों के बीच अविश्वास को भी बढ़ाता है।

क्या इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया पूरी तरह नकारात्मक है? बिल्कुल नहीं। यह एक शक्तिशाली उपकरण है, जिसने कई बार सकारात्मक बदलाव लाए हैं। लेकिन इसका उपयोग विवेकपूर्ण और ज़िम्मेदारी के साथ करना होगा। हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन फैसला सुनाने का अधिकार केवल न्यायालय को है। सोशल मीडिया को सूचना और जागरूकता का मंच बनाना होगा, न कि सजा देने का। इसके लिए डिजिटल साक्षरता, नैतिकता और मंचों की ज़िम्मेदारी तय करना अनिवार्य है। साथ ही, न्यायिक प्रक्रिया में सुधार भी उतना ही ज़रूरी है। यदि न्याय समय पर और पारदर्शी होगा, तो लोग सोशल मीडिया पर निर्भरता कम करेंगे।

न्याय एक ऐसी प्रक्रिया है, जो तथ्यों, सबूतों और निष्पक्षता पर टिकी होती है। सोशल मीडिया इस प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ कर केवल भावनाओं और तात्कालिक उन्माद को हवा देता है। यह न्याय का मज़ाक है, न कि न्याय। हमें यह तय करना होगा कि हम एक समाज के रूप में क्या चाहते हैं — सच्चाई और निष्पक्षता, या भीड़ का उन्माद और बदले की आग। सोशल मीडिया एक तलवार है, जिसे सावधानी से चलाना होगा, वरना यह न केवल दूसरों को, बल्कि हमें भी घायल कर सकती है। इस डिजिटल युग में विवेक और संयम को अपनाएँ, ताकि हम न्याय की मशाल को जलाए रखें, न कि उसे अपनी ही आग में भस्म होने दें।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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