कहानी :
हठीला भँवर
“मैं विदेशी घर पहुँच गई। जेटलैग है,”
“अपना ख्याल रखें : जेटलैग एक तरह से अपने देश की मिट्टी की ख़ुशबू से दूर होने के दर्द को कम करने में सहायक होता है!”
“बिल्कुल! शुभ रात्रि!”
“मुझे तो ज्येष्ठ के दोपहर के ताप को देखने का मौका मिल रहा हैं!”
“तुम भी अपने बेटे के पास ह्यूस्टन आ जाओ, लू की दोपहरी से बचाव होगा!” व्हाट्सएप्प में सन्देश के आदान-प्रदान के बाद गणना करने लगी कि वह कितनी बार जड़ों के साथ उखड़ी और बसी है। जिस आँगन में जन्म से लेकर किशोरी होने तक रही! पेड़ों पर चढ़कर खाने में शहतूत, शरीफा, अमरूद से इश्क़ ज़्यादा था या खिली-खिली खूबसूरत बैंगनी लिली और चम्पा से। क्रिकेट खेलना ज़्यादा प्यारा था या उड़ते पतंग का लटाई पकड़ना…! उसमें उस काल के हिसाब से लड़कियों वाले कोई गुण नहीं थे। उसकी सातवीं कक्षा के बोर्ड की परीक्षा बेहद करीब थी कि उसकी कक्षा में नये नामांकन से अनीता का प्रवेश हुआ और वह उन कुछ ही महीनों में उस (ज्योत्सना) के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हो गई। ज्योत्सना के संग विद्यालय जाने के लिए उसके घर तक अनीता अपनी गाड़ी, चालक और अंगरक्षक के संग आती और ज्योत्सना के संग पैदल विद्यालय तक जाती क्योंकि ज्योत्स्ना को उसके संग गाड़ी से जाना बिलकुल पसंद नहीं था। हवाओं के संग मचलती, रास्ते भर शरारतें करते जाने और उधार की गाड़ी के सुख से अपने पिता के मान को आँकना उसे अच्छा नहीं लगता था! समझौता अपने उसूलों से उससे कोई करवा दे यह टेढ़ी खीर थी. . .! थोड़ी ज़िद्दी वह बचपन से थी। अनीता का अंगरक्षक आकर्षक युवा था। उसे अनीता का ज्योत्स्ना के संग पैदल जाना बिलकुल पसन्द नहीं था, लेकिन ना तो वह उसे रोक पाता था और ना उसकी शिकायत उसके माता-पिता से कर पाता था! इसके लिए बदले में अनीता को उसकी दोस्ती स्वीकार करनी पड़ती थी! अनीता पर वह अपना आधिपत्य समझता था! अनीता जिसे दोस्त समझती थी वह उसके लिए जुनूनी था। अनीता के लिए ज्योत्स्ना का साथ नशा था…! लेकिन उसका नशा, उसका साथ ज़्यादा दिन तक नहीं दे सका। जिस तरह सैलाब की तरह आई थी, उसी तरह सूनामी की तरह दूसरे शहर चली गई। उसके पिता का तबादला हो गया।
ज्योत्स्ना नवम् कक्षा के उतरार्द्ध में ही रही होगी, जब एक दिन किताब-कॉपी, बक्सा-पेटी, पलंग-बिस्तर सब को उलट-पलट कर युद्ध-स्तर पर खोज़-अभियान चला। तब उसे भी पता चला कि कोई उसे चाहता था…- ठगी सी रह गई कोई चाहता था और उसे ही ना तो जानकारी और न अनुभूति हुई...? जिस घर में वह रहती थी, उस घर के सामने और दाहिने तरफ पक्की सड़क थी...। दोनों तरफ के सड़क पर जहाँ कोना बनाते थे वहीं पर एक तरफ के घर में वह रहती थी तो दूसरी तरफ एक चिकित्सक दंपति रहते थे। उनके साथ चिकित्सक साहब का छोटा भाई रहने आया था। ज्योत्स्ना भोर से रात तक, जब भी घर से बाहर होती, उसे सामने पाती...! सुबह ब्रश करते-करते बाहर आ जाती तो भी सामने वह बारामदे में खड़ा होता..., विद्यालय जाने के लिए घर से निकलती तो भी वह उसके पीछे-पीछे विद्यालय तक जाता, मध्याह्न भोजन के लिए विद्यालय से निकलती तो वह विद्यालय के मुख्य द्वार के दीवाल के सहारे साइकिल पर खड़ा मिलता..., घर आती, खाना खाती.. पुनः विद्यालय के लिए जाती, वह थोड़ी दूरी बना कर पीछा करता। विद्यालय की शाम में छुट्टी होती तो वह विद्यालय के मुख्य द्वार पर भीड़ के ओट में होता, घर तक पीछे-पीछे आता...! शाम में घर से बाहर निकलती तो वह अपने अहाते के मुख्य द्वार पर या बारामदे में खड़ा होता...! किसी के साथ भी होता तो उसका चेहरा ज्योत्स्ना की तरफ ही होता...। रात में खाना खाने के बाद भी ज्योत्स्ना अपने परिवार वालों के साथ बाहर निकलती तो वह बाहर ही होता...। बाज़ार जाती किसी काम से तो वह भी एक दूरी पर उसे जरूर देखती...। कभी परिवार वालों के साथ सिनेमा देखने सिनेमा हॉल जाती तो इंटरवल में देखती कि वह हॉल में कहीं न कहीं पर बैठा हुआ है...। यानी उस लड़के का एक सूत्री अभियान था ज्योत्स्ना के आस-पास रहना...। चकोर को जैसे चाहिए चाँद। चकोर पक्षी को चंद्रमा के प्रति प्रेम का प्रतीक माना जाता है और इसे अक्सर चंद्रमा को देखते हुए चित्रित किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चकोर चंद्रमा की ज्योत्स्ना पर ही जीवित रहता है।
यूँ तो ज्योत्स्ना अस्वस्थ्य शायद ही होती हो। परन्तु एक बार ज्योत्स्ना को बुखार लग गया कुछ दिन तक वह बाहर नहीं निकल सकी... तो उसकी सखियाँ उससे मिलने,उसके घर आईं..। वे बतलाई कि ज्योत्स्ना के विद्यालय नहीं जाने की वजह से कुछ लड़के उन्हें छेड़ते हैं...। ज्योत्स्ना को कोई लड़का छेड़ने का हिम्मत नहीं कर पाता था क्यूँ कि उसके बड़े भाइयों का दबदबा था…! कुछ दिनों के बाद ज्योत्स्ना की तबीयत ठीक हो गई और वह विद्यालय अपनी सहेलियों के साथ जाने लगी तो फिर पहले की तरह कुछ लड़के, लड़कियों को छेड़ने के नियत से सामने से आते नज़र आए लेकिन चूँकि ज्योत्सना उन लड़कियों के पीछे चल रही थी इसलिए उन लड़कों को दूर से वह दिखाई नहीं दे रही थी। सब लड़के साईकिल पर थे...। लड़के,सब लड़कियों के चारों तरफ गोल घेरा बना हँस-हँस के परेशान किया करते थे...। उस दिन भी उन लड़कों का वही इरादा रहा होगा...! लेकिन ज्योत्स्ना पर नज़र पड़ते ही सब-के-सब गिरते-पड़ते भाग गए...। ज्योत्स्ना की खिलखिलाहट पर ब्रेक कौन लगा पाता। उस दिन भी एक निश्चित दूरी बनाकर वह चिकित्सक साहब का भाई अपना नित का एक प्रथागत सामान्य कार्य (रूटीन फॉलो) करता रहा...! उस दिन उसके मुस्कान ज्योत्स्ना को भली लगी। कुछ दिनों-महीनों में पुष्पा की आँखें भी उसे ढूँढने लगी...।कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि ज्योत्स्ना किसी वजह से, भोर से रात तक, घर से बाहर नहीं निकल पाई, तो दूसरे दिन उसके बाहर आने पर,वह लड़का अपने चेहरे पर गहरी उदासी लिए, हल्की सी मुस्कान चेहरे पर लाता और सामने पड़े गमले को उठा कर ज़ोर से पटक देता...! दो-चार बार ऐसा होने पर ज्योत्स्ना को आनन्द आने लगा...। वह जानबूझ कर बाहर नहीं आती और छुपकर उस लड़के को परेशान होता देखती..,लड़का बैचैनी से टहलता नज़र आता..., साईकिल से ज्योत्स्ना के घर के सामने वाले सड़क पर चक्कर लगाता, साईकिल की घंटी बेवजह बजाता..., लड़का अपने घर के ग्राउंड-गेट के ग्रिल को ज़ोर-ज़ोर से बजाता...! रात होने पर टॉर्च को जलाता-बुझाता...।
चंदवा क ताके चकोर, लहलह म पोर-पोर
उड़त-उड़त भ गइल रोर, हुलस गइल दिल चोर
ज्योत्स्ना को खिलखिला कर हँसने का मन करता...। लेकिन मुस्कुराते हुये वह सो जाती...! न जाने वह लड़का सोता या रोता...। खाना खाता या खाना खाता भी नहीं...। ज्योत्स्ना के पास जानने समझने का कोई ना तो साधन था और ना उसको एहसास था, इसलिए उस को कुछ पता नहीं चलता...। ज्योत्स्ना, उस लड़के को जान-बुझकर तंग कर रही है, वह बात लड़के को भी कभी नहीं पता चला होगा...। सरलता-सहजता का काल था। जिस दिन भी ऐसा ज्योत्स्ना करती, दूसरे दिन उसके दीदार होने पर, वह लड़का उठा-पटक... धूम-धड़ाम जरूर करता ...। कभी गमला फूटता.. कभी मेज़-कुर्सी ज़ोर-जो से पटकता.. कभी तो साईकिल ही..। कोई चीज लगातार अनुभव में हो तो उसकी एक आदत बन जाती है न...! दूरी से खेलने वाला एक खेल ज्योत्स्ना और उस चकोर के बीच चल रहा था…! लेकिन ज्योत्स्ना और उस चकोर के बीच में, एक शब्द भी बात, कभी भी नहीं हुई...। लड़के का नाम तक वह नहीं जान पाई...। नाम जानने की जरूरत भी तो नहीं लगी होगी…! क्यूँ वह घर को छोड़ कर चला गया, कहाँ गया, ज्योत्स्ना को कभी भी पता नहीं चला... आज भी उसे एक सवाल के जबाब का इंतजार है कि अगर वह प्यार करता था तो कभी लिखकर, बोलकर प्यार का इजहार क्यूँ नहीं उससे किया...! लेकिन करता भी तो वह कैसे...? क्या ज्योत्स्ना प्यार समझ पाती और वैसे भी ज्योत्स्ना कभी अकेली कहाँ होती थी...! अगर उसकी किसी सहेली को राजदार बना भी लेता तो वह ज़माना ऐसा नहीं था कि बाली उम्र के प्यार को स्वीकृति मिल जाती। घर वाले जो ढूँढ रहे थे…, वह मिलता भी तो कैसे, कोई निशानी...! आनन्दमय खेल में निशानियों के आदान-प्रदान का होश किसे था…! उसी वर्ष एक दिन उस शहर को त्याग कर उसका परिवार बहुत दूर दूसरे शहर में बसने आ गया। इस बार उसके पिता का तबादला हो गया था। नए शहर में किराए पर एक ऐसा घर मिला जिसके एक ही आँगन में दो और परिवार रहता था। दोनों परिवार के दंपत्ति उसके बड़े भाई से कुछ ही बड़े रहे होंगे, लेकिन पिता के पड़ोसी होने के नाते चाचा-चाची ही कहती थी। एक आँगन में रहने से भोर होने से लेकर रात सोने तक सभी का साथ होता। तीन दम्पति आठ बच्चों का एक छत के नीचे तीन परिवार! ज्योत्स्ना पाँच भाई-बहन थी और दोनों दंपति को एक-एक लड़का और एक-एक लड़की। ज्योत्स्ना के सबसे बड़े भाई अपने नौकरी के कारण दूसरे शहर में रहते थे। ज्योत्स्ना के लिए बड़े मस्ती वाले दिन थे- दोनों चाचियों से परिहास चलता रहता या उनके बच्चों के संग अपने छोटे-छोटे भाई-बहनों के संग-साथ जैसा धमाल-चौकड़ी! कभी-कभी उसी मकान के ऊपरी तल में निवास करती मकान मालकिन और उनके बच्चे भी शामिल रहते, सिवाय उनके बड़े बेटा को छोड़कर। मकान मालिक का बड़ा बेटा, ज्योत्स्ना से एक-दो साल बड़ा था लेकिन दोनों की कक्षा एक ही होने से, पढ़ाई से संबंधित गंभीर बातें हो जाती। बड़े बेटे के मन की हवा ज्योत्स्ना के दिल को छू पाती, कि उसका परिवार एकान्त नहीं मिलने का आधार बनाकर, दूसरे मकान का किरायेदार हो गया। हालाँकि दोनों मकानों में लगभग दस डेगों की दूरी होगी लेकिन ज्योत्स्ना के लिए घर के आँगन में -ड्योढ़ी के अन्दर ही जीवन के सारे रंग-रस ढूँढ़ने की अनुमति होती थी। इस मकान के आँगन में बेहद एकान्त का साम्राज्य था लेकिन बाहर के बरामदे से सटे ही शोर-कोलाहल अपना आधिपत्य जमाए रहता। सट-सटा एक मंजिल-दो मंजिला मकान। एक छत से दूसरे छत पर खड़े होकर गप्पियाते स्त्री-पुरुष-युवा बच्चे। युवतियों का झुण्ड पीने का पानी के लिए बाल्टी थामे-कभी-कभी लम्बी क़तारें। लट्टू नाचते बच्चों की टोली तो कूदती-फाँदती-खेलती हुई तितलियों सी बच्चियों की टोली। मकान के बायीं ओर से थोड़ी ही दूरी पर खिलखिलाती नदी का किनारा और किनारे से सटे मकान के बरामदे में एक वृद्ध का बिस्तर-उस पर उनका बैठे रहना। बेहद सभ्य परिवार। सर पर पूरा पल्लू ढँके एक महिला (शायद बहू होगी) वृद्ध के लिए कुछ देने निकलती। एक बच्ची विद्यालय की पोशाक में आते-जाते दिखती, लेकिन खेलती नहीं दिखती…! ज्योत्स्ना की तरह शायद उसे भी उड़ने की आज़ादी नहीं हो…! (आज के महानगरों की तरह) घर के आस-पास में कौन-कौन है पता नहीं चलता। कुछ महीनों के बाद एक आकर्षक युवा आते-जाते दिखने लगा। मोहल्ले में उस परिवार से किसी का कहीं आना जाना नहीं था…! मकान से दायीं ओर दीवाल से दीवाल सटा हुआ कई मकान थे! तीसरे मकान में एक दबंग वकील रहते थे जो बलात्कारी थे, लेकिन बिना सज़ा के साँड होकर दहाड़ते रहते थे। नशे का अलग नशा चढ़ा रहता। एक बार वे चुनाव में खड़े हुए तो प्रतिद्वंद्धि में ज्योत्स्ना के किराए वाले मकान के पीछे से दूसरे मकान में रहने वाले खड़े हो गए। दोनों पूरा मोहल्ले में हाथ जोड़े घर-घर घूमकर अपने हक़ में मतदान करने के लिए भीख मांगते दिखे। और मतदान के बाद साँड़ नशेड़ी वकील की हार हो गई! गले में पहनते हार से वंचित अब और नशा कर पूरे मोहल्ले में गालियाँ बकता-गिरता-पड़ता, आकर ज्योत्स्ना के मकान के बरामदे में बैठ जाता और सभी की बेटियों को उठवा लेने की धमकी देता रहा! किसकी मजाल कि कोई घर से बाहर निकले और उस गुंडे से बात करे। अरे! बिर्नी के खोते में कौन हाथ डालता है। ज्योत्स्ना के मकान और जीतने वाले प्रतिभागी के मकान के बीच में साँप के काटे मरीज का इलाज करने वाले मौलवी साहब का मकान था। ज्योत्स्ना के मकान मालिक के बरामदे से देखने पर मौलवी का आँगन दिखलाई देता था, जहाँ झाड़-झंखाड़ से ढँका पुराना खपरैल मकान था। लोगों का कहना था कि मौलवी को जिन्न का साथ मिला हुआ था। जिन्न उसके साथ उसके ही घर में रहता है! उसके घर में ख़ास विशेष भीड़ होती थी सावन-भादो में। उस इलाके में साँप की बहुलता थी और निदान के लिए झाड़-फूँक पर विश्वास करने वाले भी अधिक थे.. .! कभी-कभी ही कोई-कोई साँप का काटा मरीज दिन में आते थे। अधिकांश रोगी धुँधलका बेला से आना शुरू करते थे, और उनका रात भर आना-जाना लगा रहता था- जिन्हें बचने की उम्मीद हो जाती थी वे रात भर टहलते रहते थे और उनके साथ के लोग गप्प कर जगाए रखने का प्रयास करते और जो नहीं बचते थे उनके साथ के लोग रोते चिल्लाते जाने की तैयारी करते! ज्योत्स्ना का कमरा बरामदे से प्रवेश करने वाला और कमरे की खिड़की शीशे वाली सड़क पर खुलने वाली और सोने पर सुहागा बरसात के दिनों में खिड़की पर भाँति-भाँति के चित्र उभरते, भाँति-भाँति के सरगोशी के स्वर गूँजते शोर के संग…। ज्योत्स्ना ग्यारहवीं पास कर महाविद्यालय में नामांकन करवा चुकी थी…! पक्की वाली सहेली राधा का साथ मिल चुका था। राधा के पिता जी के मित्र के लड़के से राधा की शादी तय हो चुकी थी। सिर्फ ज्योत्स्ना को ही पता था कि शादी तो बाद में तय हुई दोनों की अँखियाँ बातें करतीं और उनके दिल-दिमाग़ पहले से एक दूसरे के क़ैद में थे! ज्योत्स्ना के मकान के आगे चार कदमों की दूरी पर एक कब्रगाह था, जिसपर अगरबत्ती जलती रहती और उसका गन्ध रहस्यमयी वातावरण को और गाढ़ा करती रहती थी। कब्रगाह के दीवाल से सटे बेहद खूबसूरत दो मंजिला मकान में राधा के प्रेमी की बड़ी बहन अपने पति के साथ किराया में रहने आ गई। राधा ने ज्योत्स्ना को बताया कि तुम जाकर उनसे मिलना वे लोग बेहद अच्छे हैं! ज्योत्स्ना को उनके घर जाने की अनुमति मिलने वाली ही थी कि राधा के होने वाले ससुर, सास, छोटी ननद, देवर और प्रेमी सभी आ गए। अब ज्योत्स्ना का घर से बाहर निकलना और मुश्किल हो गया। सखी के ससुराल वाले उसे पहचाने, चाहे ना जाने लेकिन राधा का प्रेमी उसे अच्छे से पहचानता था और जब उसे देखता अजीब ढंग से मुस्कुराता था। एक दिन बेहद मूसलाधार वर्षा हो रही थी। ज्योत्स्ना को सामने वाले मकान में बेहद चहल-पहल दिखलायी देने लगा। परिवार के सभी सदस्यों के चेहरे बेहद गंभीर नजर आ रहे थे और कभी-कभी रोने की आवाज भी आ रही थी। बरसात की दुश्वारियों को देखते हुए भी ज्योत्स्ना की माँ छाता लगाकर सामने के मकान में गई और वापस आकर बताने का प्रयास की कि राधा की होने वाली बड़ी ननद का देहान्त हो गया है। उसकी तबीयत ख़राब थी। चिकित्सक सुई लिखा था। गम्भीर बरसात के कारण कंपाउंडर सुई देने नहीं आ पा रहा था। राधा के होने वाले ससुर को सुई लगाने का अनुभव था। उन्होंने बेटी को सुई लगा दिया और सिरिंज का निडिल रूई हटा ही रहे थे कि उतनी ही देर में बेटी की मृत्यु हो गई...। आतंक का साम्राज्य सभी के आँखों से नींद चुरा लिया था और शान्ति से कभी परिचय भी रहा हो ऐसा दूर-दूर तक नामों-निशान नहीं था। कुछ दिनों के बाद ननद का पति उस मकान को छोड़कर दूसरे किराए के मकान में चले गए! ज्योत्स्ना को भी राहत की साँसें मिलीं! कुछ ही महीनों के बाद पुनः सामने वाले मकान में मारवाड़ी नव दम्पति रहने आए। मारवाड़ी महिला में ज्योत्स्ना को बड़ी बहन के रूप में सखी मिल गई। जब भी ज्योत्स्ना को समय मिलता सामने के मकान में अपनी सखी दीदी से मिलने चली जाती। कभी-कभी ज्योत्स्ना को किसी और का साया सा नजर आता लेकिन वह संकोचवश कुछ पूछ नहीं पाती। जब वे दोनों किसी बात पर हँसती तो ज्योत्स्ना को किसी तीसरे की भी हँसी का एहसास होता! रक्षा-बन्धन के एक दिन पहले सखी दीदी ने ज्योत्स्ना से कहा “आओ ज्योत्स्ना तुम्हारे दोनों हाथों मे मेहंदी लगा देती हूँ।” “वाह: वाह:! यह तो मेरी मन-मुराद पूरी हो गई। मुझे एक हथेली मे लगाना अच्छा नहीं लगता है इसलिए मैं कभी लगा नहीं पाती हूँ।” आज के जैसा तब ज़माना नहीं था कि हर मोहहले-गली चौराहे पर मेहंदी लगाने का दुकान सजा रहता। सखी दीदी ज्योत्स्ना की दोनों हथलियों को बहुत सुन्दर सजा कर हाथ धोने चली गई। थोड़ी ही देर मे एक महिला घूँघट काढ़े आई और ज्योत्स्ना की हथेलियों पर नीबू-चीनी का घोल लगाकर चली गई। ज्योत्स्ना को उस महिला की हथेली बेहद ठंढी लगी। ज्योत्स्ना के पूरे शरीर में सिहरन होने लगा। वह दौड़कर अपने घर आ गयी और डर से किसी को कुछ नहीं बताया। वह अपनी कमजोरी उजागर नहीं करना चाहती थी। वह तो सदैव निडरता से जीती आ रही थी।
कुछ महीनों के बाद ज्योत्स्ना की दीदी-सखी की तबीयत ठीक नहीं रहने लगी। उनके पति परेशान रहने लगे क्योंकि कोई इलाज फ़ायदा करता नज़र नहीं आ रहा था। थक-हारकर वे लोग भी अपने घर दूसरे शहर लौट गए। कुछ महीनों के बाद ज्योत्स्ना के पिता को सरकारी आवास मिल गया और वह मोहल्ला उनलोगों से छूट गया। तब पुष्पा को घनघोर राहत की साँसें मिलने लगी। लेकिन नियति पीछा कहाँ छोड़ने वाली थी! कला स्नातक कर वह शिक्षा-स्नातक {Bachelor of Education (B.Ed) बी.एड} करना शुरू की क्योंकि उसकी, जिनसे शादी तय की जाती उनकी ओर से अध्यापिका बहू/जीवन संगनी होने की माँग रखी जाती थी।
किसी घटना/दुर्घटनाओं के पीछे कहा जाता है कि सारी स्त्रियाँ ऐसी तो सारे पुरुष ऐसे। क्या कोई स्त्री बिना पुरुषों के सहयोग के किसी काम का अंजाम दे सकती है? अभी उछाला जा रहा है पत्नियाँ पतियों की हत्या कर रही हैं। लाखों रुपया के लोभ में कौन लिंग सहायक हो रहा है?
करोड़ों वाली आबादी वाले देश में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे जिसे देख-सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह मानसिक विकृति है / कोई भी अपराधिक मनोवृति वाला इन्सान ऐसी हरकतें करता है : फ्रिज में, सूटकेस में मिलती औरतें , निठारी कांड जैसे। हम निदान-समाधान नहीं ढूँढते हैं, हम न्यायाधीश हो जाते हैं. . .!
उस ज़माने में शिक्षा-स्नातक {Bachelor of Education (B.Ed) बी.एड} की पढ़ाई नौ महीने की होती थी। कक्षा में ज्योत्स्ना और कबीर दो ही शिक्षार्थी अविवाहित थे और स्नातक के बाद ही पढ़ाई कर रहे थे तो उनदोनों की उम्र भी अन्य विद्यार्थियों की तुलना में बहुत ही कम थी। एक दिन कक्षा में सुनने-सुनाने का दौर चल रहा था। कबीर की बारी आई तो उसने सुनाया “पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजू पहार। ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार”
ज्योत्स्ना की भी बारी आई तो उसने सुनाया, “कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥”
कक्षाएँ चलती रहीं। पढ़ाई का काल पूरा होने के कगार पर आ गया। महाविद्यालय के बाहर थोड़ी ही दूर पर रेल की पटरी थी और रेलों का आवागमन होता रहता था। खाली समय में ज्योत्स्ना को रेल के डिब्बे की गिनती करना प्रिय शगल रहता है…। अन्तिम कक्षा के दिन घर वापिस आ रही थी तो रिक्शे के आगे से एक कॉपी उसके गोद में डाल कर झट से मोटरसाइकिल से उड़नछू हो गया। कॉपी बिलकुल नई थी और कोरी थी। कॉपी के अन्दर एक पुर्जा था और पुर्जे पर लिखा था- प्यार को प्यार मिलने में ही शान्ति है- संसार है इक नदिया दुःख-सुख दो किनारे हैं
ना जाने कहाँ जाएँ हम बहते धारे हैं
बे-दाग नहीं कोई यहाँ ना पापी सारे हैं—