काव्य :
दोहा :
माटी/अंकुर
*माटी* पानी लें बचा, ये धरती की शान |
जीवों को जीना मिले, मानव तू ले जान ||1
*माटी* सूखी रह गई, सूखे की है मार |
बोए गए न खेत हैं, हारा काश्तकार ||2
*माटी* खाद मिलाय के, गमला कर तैयार |
पुष्प पौध को रोप के, घर के रखें द्वार ||3
जैविक खेती सब करें, उर्वर *माटी* होय |
*अंकुर* निकले बीज में, उत्तम पैदा सोय ||4
नई नई तकनीक से, करें खेत तैयार |
*माटी* उर्वर की तभी, बढ़ती पैदावार ||5
नमी बराबर खेत में, *अंकुरित* हुआ बीज |
बढ़ जाएगी फसल भी, हो न सकेगी छीज ||6
करो सिंचाई वक्त से, जोते खेत किसान |
*माटी* से पैदा सभी, इसमें ही अवसान ||7
परत ऊपरी भूमि की, कहते *माटी* लोग |
जैविक तत्व प्रधान हो, बनें पेड़ का भोग ||8
*अंकुर* होता बीज जब, मिले नमी भरपूर |
*माटी* उर्वर संग में, बढ़ती फसल जरूर ||9
बीज खाद के संग में, *माटी* का कर ध्यान |
बोए फिर वैसी फसल, *अंकुर* मिले समान ||
- विनोद शर्मा, गाजियाबाद