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एक अनंत मशाल: स्वामी विवेकानंद का निर्वाण और अविनाशी प्रकाश -प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी

 


[प्रसंगवश – 04 जुलाई: युग-द्रष्टा स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि]

एक अनंत मशाल: स्वामी विवेकानंद का निर्वाण और अविनाशी प्रकाश

[अनंत में विलीन एक सूर्य: स्वामी विवेकानंद की समाधि और अविचल ज्योति]

   जब मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ और भारत की उस सनातन आत्मा की कल्पना करता हूँ, जो युगों से सत्य, प्रेम और साहस की प्रेरणा देती रही है, तो मेरे सामने स्वामी विवेकानंद का तेजस्वी चेहरा उभर आता है। वह चेहरा, जो केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक युग का प्रतीक है; वह आवाज़, जो केवल शब्दों की नहीं, बल्कि आत्मजागरण की हुंकार है। 4 जुलाई 1902 का वह दिन, जब यह महान आत्मा अपने भौतिक शरीर को त्यागकर अनंत में विलीन हो गई, भारत के लिए केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक अनश्वर प्रेरणा का स्मारक है। स्वामी विवेकानंद कोई साधारण सन्यासी नहीं थे; वे उस अग्नि के समान थे, जिसने भारत के सोए हुए मानस को झकझोरा और विश्व को भारतीय अध्यात्म की अनंत गहराई से परिचित कराया। उनकी पुण्यतिथि हमें नमन करने का अवसर देती है—न केवल उनके जीवन को, बल्कि उस साहस, करुणा और आत्मविश्वास को, जो उन्होंने हमें विरासत में दिया।

स्वामी विवेकानंद, जिनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में नरेंद्र नाथ दत्त के रूप में हुआ, बचपन से ही एक असाधारण आत्मा थे। उनकी जिज्ञासु बुद्धि और आध्यात्मिक पिपासा उन्हें उनके समकालीनों से अलग करती थी। 1881 में रामकृष्ण परमहंस से उनकी मुलाकात ने उनके जीवन को एक नया मोड़ दिया। रामकृष्ण ने उनके भीतर छिपे उस सूर्य को देखा, जो विश्व को आलोकित करने वाला था। 1886 में रामकृष्ण के देहावसान के बाद, नरेंद्र ने स्वामी विवेकानंद के रूप में उनके संदेश को विश्व तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया। यह केवल एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति समर्पण नहीं था, बल्कि एक ऐसी क्रांति का प्रारंभ था, जिसने भारत की आत्मा को पुनर्जागृत किया और विश्व को भारतीय दर्शन की गहनता से परिचित कराया।

1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद का भाषण इतिहास का वह स्वर्णिम क्षण था, जिसने भारत को वैश्विक मंच पर अमर कर दिया। जब उन्होंने अपनी गूंजती वाणी में “मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों” कहकर सभागार को संबोधित किया, तो वह पल समय को ठहरा देने वाला था। सात मिनट के उस संक्षिप्त भाषण में उन्होंने वेदांत, सहिष्णुता और विश्व बंधुत्व का ऐसा सशक्त संदेश दिया, जो आज भी विश्व के हृदय में गूंज रहा है। न्यूयॉर्क हेराल्ड ने लिखा, “विवेकानंद इस सम्मेलन के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व हैं।” यह केवल एक व्यक्ति की प्रशंसा नहीं थी, बल्कि भारतीय संस्कृति की वैश्विक स्वीकृति का प्रतीक था। उस भाषण ने पश्चिमी जगत को यह सिखाया कि भारत का अध्यात्म केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि मानवता के लिए एक सार्वभौमिक दर्शन है।

स्वामी विवेकानंद का दर्शन रूढ़ियों को तोड़ने वाला था। उन्होंने धर्म को मंदिरों और पूजा-पाठ तक सीमित नहीं किया। उनके लिए धर्म था—करुणा का सागर, साहस का शिखर और मानव सेवा का जीवंत स्वरूप। वे कहते थे, “जो दरिद्रों और असहायों में ईश्वर के दर्शन नहीं कर सकता, वह सच्चा धार्मिक नहीं है।” यह वाक्य मेरे हृदय को गहरे तक छूता है। जब मैं समाज में व्याप्त दुख और असमानता को देखता हूँ, तो उनके शब्द मेरे भीतर एक नई चेतना जागृत करते हैं। 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना उनके इसी दर्शन का मूर्त रूप थी। 2025 तक, यह मिशन 200 से अधिक शैक्षणिक संस्थानों और 700 से अधिक गैर-औपचारिक शिक्षा केंद्रों के माध्यम से लाखों लोगों के जीवन को शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा के ज़रिए संवार रहा है। स्वामीजी ने यह सिद्ध किया कि सच्चा धर्म वह है, जो मानवता की सेवा में समर्पित हो।

स्वामी विवेकानंद के विचारों में आत्मविश्वास की वह अग्नि थी, जो एक व्यक्ति को नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र को प्रज्वलित कर सकती थी। उस दौर में, जब भारत औपनिवेशिक गुलामी और आत्मग्लानि से जूझ रहा था, उन्होंने घोषणा की, “अपने को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।” यह वाक्य केवल शब्द नहीं थे, बल्कि एक ऐसी क्रांतिकारी हुंकार थी, भारत के युवाओं में आत्मसम्मान और साहस का संचार किया। उनके विचारों में एक विराट आकाश की अनंतता थी, जो हर भय और दुर्बलता को निगल लेती थी। मुझे उनका वह प्रसंग स्मरण आता है, जब एक पाश्चात्य विद्वान ने उनसे उनकी निर्भीकता का रहस्य पूछा। स्वामीजी ने मुस्कुराते हुए कहा, “ब्रह्मचर्य और स्वाध्याय।” इस संक्षिप्त उत्तर में उनके जीवन की साधना और संयम का सार छिपा था। उन्होंने अपने जीवन से यह दिखाया कि आत्मानुशासन और साधना ही वह शक्ति है, जो मनुष्य को महामानव बनाती है।

स्वामी विवेकानंद का एक और विशेष पहलू था उनकी युवाओं के प्रति अपार श्रद्धा। वे मानते थे कि युवा शक्ति ही राष्ट्र के भविष्य का आधार है। उन्होंने कहा, “मुझे सौ ऊर्जावान युवा दो, और मैं भारत को बदल दूँगा।” यह वाक्य आज भी मेरे हृदय में आग की तरह जलता है। यह वह आह्वान था, जो युवाओं को अपनी शक्ति पहचानने और राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के लिए प्रेरित करता था। उनके इस विश्वास ने भारत के युवाओं में एक नई चेतना का संचार किया, जो आज भी प्रासंगिक है। 2023 के आँकड़ों के अनुसार, भारत की 65% जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु की है, और स्वामीजी का यह संदेश आज के युवाओं के लिए उतना ही प्रेरक है, जितना उनके समय में था।

उनका सबसे अमर संदेश था, “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।” यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि जीवन का मंत्र है। जब-जब मैं हताशा या असफलता के क्षणों से जूझता हूँ, यह वाणी मेरे भीतर नई ऊर्जा का संचार करती है। यह वह आह्वान है, जो हर सोई हुई आत्मा को झकझोरकर उसे उसकी अनंत संभावनाओं का स्मरण कराता है। स्वामी विवेकानंद ने हमें सिखाया कि हमारी सबसे बड़ी शक्ति हमारे भीतर ही निहित है। उन्होंने कहा, “प्रत्येक आत्मा में अनंत शक्ति छिपी है।” यह विश्वास उनके दर्शन का मूल था, और यही विश्वास आज भी हमें अपने भीतर की दिव्यता का आभास कराता है।

शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण भी क्रांतिकारी था। वे मानते थे कि शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्रियाँ अर्जित करना नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और आत्मनिर्भरता का विकास करना है। उन्होंने कहा, “शिक्षा वह है, जो मनुष्य को अपने पैरों पर खड़ा करे।” आज, जब शिक्षा का व्यवसायीकरण अपने चरम पर है, उनके यह शब्द हमें शिक्षा के सच्चे अर्थ की याद दिलाते हैं। रामकृष्ण मिशन के शैक्षणिक संस्थान उनके इस दृष्टिकोण को जीवंत रूप दे रहे हैं। 2023 के आँकड़ों के अनुसार, मिशन के स्कूल और कॉलेज भारत के कोने-कोने में लाखों बच्चों को न केवल ज्ञान, बल्कि नैतिकता और आत्मविश्वास भी प्रदान कर रहे हैं।

स्वामी विवेकानंद का जीवन केवल 39 वर्ष का रहा, लेकिन इस संक्षिप्त समय में उन्होंने जो प्रभाव छोड़ा, वह अनंत काल तक प्रेरणा देता रहेगा। 4 जुलाई 1902 को, बेलूर मठ में, ध्यानमग्न अवस्था में उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया। कहा जाता है कि वे महासमाधि में लीन हो गए, जो एक सिद्ध योगी की पराकाष्ठा है। उनकी मृत्यु केवल एक अंत नहीं थी, बल्कि उनके विचारों का अमरत्व था। एक विशेष प्रसंग में, स्वामीजी ने अपने शिष्यों से कहा था, “मैं मरने के बाद भी तुम्हारे बीच रहूँगा।” यह वाक्य उनके अविनाशी प्रभाव का प्रतीक है। आज भी, उनके विचार भारत के हर कोने में गूंज रहे हैं।

स्वामी विवेकानंद, भारत की आत्मा का प्रज्वलित सूर्य, उस युग-द्रष्टा की पुण्यतिथि एक पावन आह्वान है, जो हर हृदय में आत्मविश्वास और साहस की ज्योति प्रज्वलित करती है। जब वे अनंत में विलीन हुए, उन्होंने अपने विचारों की अमर अग्नि को युगों-युगों तक जलाए रखने का संदेश छोड़ा। उनका जीवन एक सनातन गाथा है, जो सिखाता है कि सच्ची शक्ति बाहरी परिस्थितियों में नहीं, बल्कि प्रत्येक आत्मा में बसी उस अखंड सामर्थ्य में निहित है, जो असंभव को संभव बनाती है। उनकी अमर वाणी, “तुम अनंत शक्तियों के स्वामी हो, अपने को दुर्बल मत मानो,” निराशा के घने अंधेरों को चीरकर हर हृदय में उद्देश्य की लौ जलाती है। “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए,” यह मंत्र हर आत्मा को उसकी अंतर्निहित दिव्यता से जोड़ता है, उसे विश्व कल्याण का साधक बनने को प्रेरित करता है। स्वामीजी का जीवन एक चिरस्थायी दीपस्तंभ है, जिसकी किरणें समय के अंधकार को भेदकर मार्ग दिखाती हैं। उनकी पुण्यतिथि हमें प्रण लेने को प्रेरित करती है कि उनके आदर्शों को कर्म में उतारकर हम राष्ट्र और मानवता की सेवा करें, और उनकी प्रेरणा से भारत को पुनः विश्व गुरु के स्थान पर प्रतिष्ठित करें ।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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