लघुकथा :
झूठ की विरासत
"मम्मी, ये फ्राई पैन दो हजार का है, ठीक है न? " संदीप ने मां को फ्राई पैन दिखाते हुए कहा।
"ये लो दो हज़ार।"
" मम्मी, पांच हजार फीस है और सात हजार की किताबें... एक दो हज़ार और दे दो, कोई और खर्चा भी निकल आता है।"
संगीता ने बिना कुछ पूछे पैसे दे दिए।
थोड़ी देर बाद संदीप का दोस्त अरविंद आया, उसे बुलाने। संगीता ने बातों-बातों में पूछ लिया, "तुम्हारी फीस कितनी है?"
अरविंद बोला, " बाइस सौ रुपये।"
संगीता को झटका-सा लगा। उसे संदेह हुआ। उसने एक-दो और चीज़ों के रेट दुकानदार से फोन पर वेरीफाई किये तो हर जगह बड़ा अंतर मिला।
वह बहुत दुखी हो गई। संदीप के आते ही उसका गुस्सा फूट पड़ा —
"नालायक! मां को ही ठगता है? ज़रा भी शर्म नहीं आती? ज्यादा रेट बताकर अपनी ही मां से पैसे ऐंठ रहा है? क्या कसर छोड़ी थी तेरे लालन पालन में?"
संदीप ने बिना झिझक जवाब दिया —
"मां, आप भी तो दादा-दादी को ज्यादा रेट बताया करती थीं। जब दादी बुआ के लिए कोई साड़ी,सूट या अपनी दवा या कुछ भी मंगवाती थी। ऊपर से आप मुझे भी समझा देती थीं — ‘दादा-दादी को कुछ मत बताना!’
संगीता कुछ पल को चुप रह गई।
"वो तेरे दादा-दादी बहुत कंजूस थे, इसलिए... मैं तो तेरी मां....." — वह सफाई में कुछ कहने ही वाली थी कि संदीप बीच में बोल पड़ा —
"मां, वो भी आपके मां-बाप थे... अगर आप समझती तो।"
यह कहता हुआ वह सीढ़ियां चढ़ गया... और संगीता वहीं बैठी रह गई — चुप, शर्मिंदा और टूटी हुई।
- डॉ अंजना गर्ग (सेवानिवृत)
म द वि रोहतक