रेत, लालच और उपेक्षा के बीच तड़पती जलधाराएँ
[जब समाज नदियों का संरक्षक बनेगा, तभी भविष्य बचेगा]
भारत की सभ्यता नदियों की पवित्र गोद में पलकर सँवरी है। सिंधु और गंगा के तटों पर बसे प्राचीन नगर केवल व्यापारिक या सांस्कृतिक केंद्र नहीं थे, बल्कि जीवन की धड़कन थे, जो नदियों के निर्मल प्रवाह से जीवंत रहे। ये नदियाँ भारत की आत्मा हैं, जिन्होंने खेतों को हरियाली, गाँवों को जीवन और संस्कृतियों को एकता का सूत्र दिया। किंतु आज आधुनिक भारत की तस्वीर हृदय को मर्माहत करती है। जिन नदियों ने हमें जीवन का अमृत दिया, वही हमारी लापरवाही, लोभ और उपेक्षा की भेंट चढ़ रही हैं। गंगा-यमुना जैसी विशाल नदियों पर योजनाएँ और चर्चाएँ भले हों, पर हजारों छोटी नदियाँ, झरने और तालाब गुमनामी के अंधकार में खो रहे हैं। ये छोटी नदियाँ, जो गाँवों के लिए किसी गंगा से कम नहीं थीं, आज मृत्युशैया पर हैं, केवल सूखी धरती और टूटी आशाओं की मूक कहानी कहती हुई।
स्थिति भयावह है। जल संसाधन मंत्रालय (2023) के अनुसार, 70% से अधिक छोटी नदियाँ सूख चुकी हैं या सूखने की कगार पर हैं। बेतवा, रूपनगढ़, कांची और कोनार जैसी नदियाँ, जो कभी गाँवों की जीवनरेखा थीं, आज कूड़े, रेत माफिया और अवैध निर्माण की मार से जर्जर हैं। कई नदियाँ प्रदूषण के कारण नालों में बदल गई हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी की रिपोर्ट बताती है कि 50 वर्षों में इनका प्रवाह 50% तक सिकुड़ गया। इससे ग्रामीण आत्मनिर्भरता चरमराई है। किसान, जो कभी इन नदियों से खेत सींचते थे, अब मँहगे ट्यूबवेल और रीतते भूजल पर निर्भर हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, भूजल स्तर प्रतिवर्ष 1-2 मीटर नीचे गिर रहा है, जिससे जलवायु परिवर्तन और सूखा और गहरा रहा है। यह जल संकट नहीं, सभ्यता के अस्तित्व का संकट है।
यह संकट केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक ढाँचे को झकझोरने वाला है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (2022) के आँकड़े चेताते हैं कि जल संकट और सूखे ने किसानों की आत्महत्याओं को बढ़ाया है, खासकर जहाँ छोटी नदियाँ मृतप्राय हैं। छोटे और सीमांत किसान, जिनके पास साधन सीमित हैं, सबसे अधिक प्रभावित हैं। खेती की लागत बढ़ी, उत्पादन घटा, और गाँवों में पानी लाने का बोझ महिलाओं व बच्चों पर पड़ रहा है। यूनेस्को (2023) की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में 35% महिलाएँ प्रतिदिन 2-4 घंटे पानी जुटाने में खर्च करती हैं। यह जल की कमी नहीं, सामाजिक असमानता और मानवीय गरिमा का संकट है।
किंतु इस अंधकार में आशा की किरणें चमक रही हैं। देशभर में छोटी नदियों के पुनर्जनन के लिए सामुदायिक आंदोलन उभर रहे हैं। महाराष्ट्र का हिवरे बाज़ार गाँव इसका प्रेरक उदाहरण है, जहाँ ग्रामीणों ने श्रमदान से सूखी नदी को जीवंत किया। आज यह गाँव जल संरक्षण का वैश्विक मॉडल है, जहाँ प्रति व्यक्ति आय 1995 के 20,000 रुपये से बढ़कर 2023 में 2.5 लाख रुपये से अधिक हो गई। कर्नाटक के कोलार में ‘तालाब पुनर्जीवन अभियान’ ने धाराओं को पुनर्जनन दिया। मध्यप्रदेश की ‘नर्मदा सेवा यात्रा’ ने लाखों लोगों को संकल्पित कर जलग्रहण क्षेत्रों में हजारों पौधे लगाए। राजस्थान के “जलपुरुष” राजेंद्र सिंह ने तरुण भारत संगम के माध्यम से अरावरी, रूपारेल और भगानी जैसी नदियों को जीवन लौटाया, जिसे 2001 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला।
ये प्रयास रेखांकित करते हैं कि नदियों का पुनर्जनन केवल सरकारी योजनाओं पर निर्भर नहीं। समुदाय की सक्रिय भागीदारी के बिना कोई योजना फलित नहीं हो सकती। “जलपुरुष” राजेंद्र सिंह का कथन, “नदी केवल जलधारा नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और सामाजिक ताने-बाने की रीढ़ है,” गहन सत्य उद्घाटित करता है। जब समुदाय नदी को अपनी जिम्मेदारी मानता है, तभी वह पुनर्जनन पाती है। हमारे पास वर्षा जल संग्रहण, पारंपरिक जोहड़-तालाबों का पुनर्निर्माण, तटवर्ती वृक्षारोपण और भूजल पुनर्भरण जैसे किफायती और प्रभावी तकनीकी समाधान हैं। जल विशेषज्ञों के अनुसार, यदि प्रत्येक गाँव वर्षा के 30% जल को संरक्षित कर ले, तो भूजल स्तर स्थिर होगा और छोटी नदियाँ स्वतः जीवंत हो उठेंगी।
सरकारी प्रयासों ने भी नदियों के पुनर्जनन को गति दी है। ‘अमृत सरोवर योजना’ और ‘जल शक्ति अभियान’ ने ग्रामीण जलस्रोतों को पुनर्जनन का नया जीवन दिया। 2023 तक, अमृत सरोवर योजना के तहत 60,000 से अधिक तालाबों का निर्माण और जीर्णोद्धार हुआ। किंतु इन योजनाओं की सार्थकता तभी है, जब समुदाय सक्रिय सहभागी बने। गुजरात के सौराष्ट्र में सौरभ वनिक ने ‘वृक्ष प्रेमी’ के माध्यम से 12,000 से अधिक पौधे लगाकर और जल संरक्षण तकनीकों से कई छोटी नदियों को जीवन लौटाया।
नदियों का पुनर्जनन केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और आर्थिक समृद्धि का सवाल है। सूखती नदियाँ छोटे किसानों की आजीविका निगल रही हैं, जिससे जल संकट, गरीबी और आत्महत्याएँ बढ़ी हैं। पानी की कमी ने ग्रामीण महिलाओं और बच्चों के जीवन को और दूभर किया है। यह केवल जल की हानि नहीं, बल्कि सामाजिक ढाँचे का क्षरण है, जो हमारी साझा जिम्मेदारी को पुकारता है।
नदियाँ भारत की सांस्कृतिक आत्मा हैं। प्रत्येक नदी से कोई न कोई लोककथा, गीत या परंपरा जुड़ी है। बंगाल की दामोदर “शोक की नदी” है, तो साबरमती गांधी के स्वतंत्रता संग्राम की साक्षी। छोटी नदियाँ भी अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं। इनके मिटने से केवल जलस्रोत नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान भी खत्म हो रही है। इसलिए नदियों का पुनर्जनन केवल जल संरक्षण नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का संकल्प है।
सबसे बड़ी चुनौती है विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन। शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और अवैध खनन ने नदियों को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है। यदि हमने इस लापरवाही को जारी रखा, तो नदियाँ केवल इतिहास की किताबों में रह जाएँगी। लेकिन यदि हम अपने पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक विज्ञान से जोड़ें, तो इन नदियों में फिर से जीवन की लहरें दौड़ सकती हैं।
भारत की भूली-बिसरी नदियाँ हमें सिखाती हैं कि जीवन की असली शक्ति भव्यता में नहीं, बल्कि छोटे-छोटे स्रोतों में छिपी है। ये छोटी नदियाँ ग्रामीण भारत की धड़कन हैं। इन्हें बचाना केवल प्रकृति के प्रति हमारा कर्तव्य नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक पवित्र जिम्मेदारी है। यह आंदोलन केवल नदियों का पुनर्जनन नहीं, बल्कि हमारी आत्मा, संस्कृति और मानवता का पुनर्जनन है। इस संकल्प में शामिल हों और अपनी नदियों को फिर से जीवन दें।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)