तकनीक के दौर में ‘लंबे कार्य घंटे’ क्यों हैं पुरातन सोच?
[कार्यस्थल पर थकान और तनाव: सरकार ने क्या सोचा है?]
महाराष्ट्र सरकार का निजी क्षेत्र में कार्य घंटे 9 से बढ़ाकर 10 करने का प्रस्ताव न केवल कर्मचारियों के लिए अन्यायपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। प्रस्तावित संशोधन, जो महाराष्ट्र शॉप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट, 2017 के तहत लागू होने की योजना है, उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर कर्मचारियों के कल्याण को नजरअंदाज करता है। यह धारणा कि अधिक घंटे काम करने से उत्पादकता स्वतः बढ़ेगी, भ्रामक और वैज्ञानिक रूप से असमर्थित है। अध्ययनों से बार-बार सिद्ध हुआ है कि लंबे कार्य घंटे कर्मचारियों की कार्यक्षमता, स्वास्थ्य और रचनात्मकता को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे कार्यस्थल पर नवाचार और समग्र उत्पादकता में कमी आती है।
लंबे कार्य घंटों का सबसे गंभीर प्रभाव कर्मचारियों की कार्यक्षमता पर पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का एक अध्ययन स्पष्ट करता है कि प्रति सप्ताह 40 घंटे से अधिक काम करने पर थकान और तनाव के कारण उत्पादकता में कमी आती है। उदाहरण के लिए, 2019 के एक शोध में पाया गया कि 50 घंटे से अधिक साप्ताहिक कार्य करने वाले कर्मचारियों में त्रुटि दर 20% बढ़ जाती है और रचनात्मकता में 15% की कमी आती है। महाराष्ट्र में वर्तमान 9 घंटे की दैनिक कार्य अवधि (साप्ताहिक 54 घंटे, 6 कार्य दिवस मानकर) पहले ही वैश्विक मानकों से अधिक है। इसे 10 घंटे प्रतिदिन (60 घंटे साप्ताहिक) करने से कर्मचारियों पर शारीरिक और मानसिक दबाव बढ़ेगा, जिससे स्वास्थ्य समस्याएं, कार्यक्षमता में कमी और कार्य-जीवन संतुलन बिगड़ने का खतरा है। क्या सरकार ने इस बात पर विचार किया है कि बढ़े हुए घंटों से उत्पन्न थकान कर्मचारियों की दीर्घकालिक कार्यक्षमता और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव डालेगी?
इसके अतिरिक्त, लंबे कार्य घंटे कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के 2021 के संयुक्त अध्ययन के अनुसार, लंबे कार्य घंटों के कारण प्रतिवर्ष वैश्विक स्तर पर 7.45 लाख लोग हृदय रोग और स्ट्रोक से जान गंवाते हैं। यह आंकड़ा वर्ष 2000 की तुलना में 29% अधिक है, जो कार्यस्थल पर लंबे समय तक काम करने की संस्कृति के घातक परिणामों को उजागर करता है। भारत में, जहां निजी क्षेत्र में तनाव और बर्नआउट पहले से ही व्यापक है, यह प्रस्ताव स्थिति को और गंभीर कर सकता है। उदाहरण के लिए, 2022 के एक सर्वेक्षण में खुलासा हुआ कि भारत के 59% कर्मचारी कार्यस्थल पर तनाव का शिकार हैं, और उनमें से 42% ने बताया कि लंबे कार्य घंटे उनकी मानसिक सेहत को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। महाराष्ट्र जैसे औद्योगिक केंद्र, जहां लाखों लोग निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं, में क्या सरकार इस गंभीर जोखिम को अनदेखा कर सकती है?
प्रस्तावित नाइट शिफ्ट में महिलाओं को शामिल करने का प्रावधान भी गंभीर चिंता का विषय है। हालांकि इसे लैंगिक समानता और रोजगार के अवसर बढ़ाने के नाम पर प्रस्तुत किया गया है, लेकिन इससे जुड़े सुरक्षा और सुविधा के सवाल अनुत्तरित हैं। नाइट शिफ्ट में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कठोर उपाय, जैसे अनिवार्य पिकअप-ड्रॉप सुविधाएं और सुरक्षित कार्यस्थल, अनिवार्य होने चाहिए। लेकिन क्या सरकार ने इसके लिए कोई ठोस और विश्वसनीय योजना तैयार की है? भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा पहले से ही एक ज्वलंत मुद्दा है। 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, केवल 23% महिलाएं ही नाइट शिफ्ट में काम करना सुरक्षित मानती हैं, और उनमें से अधिकांश ने परिवहन और कार्यस्थल सुरक्षा की अपर्याप्त व्यवस्था की शिकायत की। मजबूत सुरक्षा ढांचे के अभाव में, यह प्रस्ताव महिलाओं को सशक्त बनाने के बजाय उन्हें जोखिम में डाल सकता है।
इसके अतिरिक्त, यह दावा कि लंबे कार्य घंटे उत्पादकता बढ़ाएंगे, तकनीकी प्रगति के युग में आधारहीन और पुरातन लगता है। आज टेक्नोलॉजी और ऑटोमेशन के बल पर उत्पादकता को कई गुना बढ़ाया जा सकता है, न कि कर्मचारियों को अधिक समय तक काम करने के लिए बाध्य करके। जापान जैसे देशों ने कम कार्य घंटों और नवाचारों के माध्यम से उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। उदाहरण के लिए, 2019 में जापान में माइक्रोसॉफ्ट ने चार दिन के कार्य सप्ताह का प्रयोग किया, जिससे उत्पादकता में 40% की प्रभावशाली वृद्धि दर्ज की गई। महाराष्ट्र सरकार को ऐसे प्रगतिशील और सिद्ध उपायों पर ध्यान देना चाहिए, न कि पुराने, अप्रभावी और थकाऊ तरीकों पर निर्भर रहना चाहिए।
आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह प्रस्ताव दीर्घकालिक रूप से हानिकारक सिद्ध हो सकता है। लंबे कार्य घंटे कर्मचारियों के कार्य-जीवन संतुलन को नष्ट करते हैं, जिससे उनकी नौकरी से संतुष्टि में कमी आती है। 2023 की एक अध्ययन के अनुसार, असंतुष्ट कर्मचारी 30% अधिक संभावना के साथ नौकरी छोड़ते हैं, जिससे कंपनियों को प्रतिभा का नुकसान और भर्ती लागत में भारी वृद्धि का सामना करना पड़ता है। महाराष्ट्र, जो भारत का एक प्रमुख औद्योगिक केंद्र है, अगर कर्मचारी असंतोष में वृद्धि होती है, तो इसकी आर्थिक प्रतिस्पर्धा और समृद्धि को गंभीर झटका लग सकता है। क्या सरकार इस जोखिम को अनदेखा करके राज्य के भविष्य को दांव पर लगाने को तैयार है?
यह प्रस्ताव सामाजिक असमानता को और गहरा सकता है, जिससे समाज का ताना-बाना और कमजोर हो सकता है। निजी क्षेत्र में कार्यरत अधिकांश कर्मचारी मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग से आते हैं, जो पहले से ही आर्थिक तनाव से जूझ रहे हैं। लंबे कार्य घंटे उनके परिवार और निजी जीवन के लिए समय को और अधिक छीन लेंगे, जिससे सामाजिक तनाव और असंतुलन में खतरनाक वृद्धि होगी। इसके बजाय, सरकार को कर्मचारी कल्याण पर जोर देना चाहिए—बेहतर वेतन, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधाएं और लचीले कार्य घंटों जैसे कदम न केवल कर्मचारियों की भलाई सुनिश्चित करेंगे, बल्कि सामाजिक समरसता को भी बढ़ावा देंगे।
महाराष्ट्र सरकार को इस प्रस्ताव पर तत्काल पुनर्विचार करना चाहिए। यह प्रस्ताव न केवल कर्मचारियों के हितों के खिलाफ है, बल्कि यह दीर्घकाल में उद्योगों और समाज के लिए भी हानिकारक हो सकता है। लंबे कार्य घंटों की पुरातन नीति के बजाय, तकनीकी नवाचार, कर्मचारी प्रशिक्षण और कार्यस्थल सुधारों पर निवेश करना कहीं अधिक प्रभावी सिद्ध होगा। यह न केवल कर्मचारियों के हितों की रक्षा करेगा, बल्कि दीर्घकाल में राज्य की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढांचे को भी सुदृढ़ करेगा। सरकार को यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि कर्मचारी किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, और उनकी उपेक्षा करना एक ऐसी भयावह भूल होगी, जिसका खामियाजा पूरे राज्य को भुगतना पड़ सकता है।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)