वर्तमान में व्यंग्य लेखन के मानक
- विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
व्यंग्य लेखन साहित्य की वह विधा है जो समाज के अंतर्विरोधों, विसंगतियों और विद्रूपताओं को उजागर करती है। यह महज़ हँसाने का माध्यम नहीं, बल्कि एक सशक्त सामाजिक टिप्पणी है, जो समाज को आईना दिखाने का साहस रखती है। वर्तमान समय में जब सूचना की गति तेज़ है, और सामाजिक ढाँचे में निरंतर परिवर्तन हो रहे हैं, तब व्यंग्य लेखन के मानकों में भी परिवर्तन और परिष्कार हुआ है।
आज के व्यंग्य लेखन में स्पष्ट दृष्टिकोण का होना अनिवार्य है। लेखक को यह पता होना चाहिए कि वह किस सामाजिक या राजनीतिक प्रवृत्ति पर प्रहार कर रहा है। व्यंग्य किसी घटना, व्यक्ति या प्रवृत्ति की आलोचना तो करता है, परंतु वह आलोचना बौद्धिक और कलात्मक होनी चाहिए, न कि व्यक्तिगत या अमर्यादित। आधुनिक व्यंग्य एक विचार का पक्ष लेकर उसकी विरोधी सोच को अतिशयोक्तिपूर्ण रूप में प्रस्तुत करता है, जिससे हास्य उत्पन्न होता है और साथ ही मूल सन्देश भी स्पष्ट हो जाता है।
आज के व्यंग्य लेखन की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विषयवस्तु में अत्यधिक विशिष्टता है। सामान्य कथाओं या घटनाओं से हटकर, यदि किसी अजीब, अतिरेक और अप्रत्याशित उदाहरण के माध्यम से व्यंग्य रचा जाए, तो वह अधिक प्रभावशाली होता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई लेखक सरकारी तंत्र की आलस्यपूर्ण कार्यशैली पर व्यंग्य लिखता है, तो वह ‘एक कछुए को नौकरी लगने और विभागीय फाइलों में अटक जाने’ जैसी कल्पना का सहारा ले सकता है, जिससे हास्य भी उत्पन्न हो और पाठक ठिठककर सोचने को भी मजबूर हो।
व्यंग्य का उद्देश्य केवल उपहास करना नहीं है। यह सामाजिक जागरूकता फैलाने, सोच बदलने और व्यवस्थागत सुधार के लिए जनमत तैयार करने का माध्यम है। आज के दौर में, जब संचार के नये माध्यम जैसे मोबाइल ऐप, सोशल मीडिया और इंटरनेट समाचार पोर्टल सक्रिय हैं, व्यंग्य लेखन की पहुँच पहले से कहीं अधिक हो गई है। एक व्यंग्य रचना मिनटों में हज़ारों तक पहुँच सकती है, जिससे लेखक की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है।
आज व्यंग्य लेखन में नैतिक सीमाओं का ध्यान रखना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि भाषा या विचार का। लेखक को यह सावधानी रखनी होती है कि वह किसी समूह, जाति, धर्म, लिंग या विकलांगता को लक्षित कर हास्य न बनाए। यह अंतर बहुत महीन होता है, पर समझना आवश्यक है कि व्यंग्य कहीं कटाक्ष न होकर मानहानि या असंवेदनशील मज़ाक में न बदल जाए। एक ज़िम्मेदार व्यंग्यकार वही है जो समाज को चुभने वाले प्रश्न पूछे, पर मर्यादा का पालन भी करे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में वर्तमान व्यंग्य लेखन ने नए रूप धारण किए हैं। जहाँ पहले व्यंग्य मुख्यतः साहित्यिक पत्रिकाओं और अख़बारों तक सीमित था, अब यह मंचीय प्रस्तुतियों, सोशल मीडिया, यूट्यूब चैनलों और ऑनलाइन पत्रिकाओं तक पहुँच चुका है। मंचीय प्रस्तुतियों में "ऐसी तैसी डेमोक्रेसी" जैसे तीक्ष्ण प्रयोगों ने व्यंग्य को आधुनिक युवाओं के बीच पहुँचाया है। इन मंचों पर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विषयों पर गीतों, संवादों और कविता के माध्यम से तीखा व्यंग्य प्रस्तुत किया जाता है। इसी प्रकार विज्ञापन की दुनिया में ‘अमूल’ के पोस्टर निरंतर हल्के फुल्के परंतु प्रभावशाली व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं।
हिंदी के समकालीन व्यंग्यकारों में पंकज प्रसून का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो विज्ञान आधारित व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं। इसके अलावा हरि जोशी, सुशील सिद्धार्थ, विवेक रंजन श्रीवास्तव जैसे लेखक आज भी क्लासिक व्यंग्य की परंपरा को आधुनिक संदर्भों से जोड़ते हुए आगे बढ़ा रहे हैं। इनकी रचनाओं में भाषा की चपलता, प्रतीकों की नवीनता और सामाजिक अंतर्दृष्टि देखने योग्य है।
व्यंग्य लेखन की प्रक्रिया में रचनात्मक संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। एक प्रभावी व्यंग्य में विषय वस्तु स्पष्ट, भाषा शैली सहज और कथानक सुसंगठित होता है। लेखक को यह निर्णय लेना होता है कि वह किसी एक विचार के पक्ष में रहेगा या उसके विरोध में, और उसके बाद रचना को उसी धारा में बहाना होता है। हास्य उत्पन्न करने के लिए अतिशयोक्ति, विरोधाभास, विडंबना, नकल, रूपांतरण और द्विअर्थता जैसे उपकरणों का उपयोग करना पड़ता है। यह सभी उपकरण भाषा, संदर्भ और समय के अनुसार भिन्न रूपों में प्रयुक्त होते हैं।
भाषा की दृष्टि से आज का व्यंग्य बहुस्तरीय हो गया है। एक ओर वह ग्रामीण परिवेश की बोलियों से लेकर शहरी शब्दावली तक को आत्मसात करता है, वहीं दूसरी ओर आज की पीढ़ी से जुड़ने के लिए वह विज्ञापन, फिल्मी संवाद, मोबाइल ऐप्स, मीम और इंस्टाग्राम की भाषा का भी प्रयोग करता है। यह बदलाव व्यंग्य को समसामयिक बनाता है, पर इसके साथ-साथ लेखक को इस बात का ध्यान भी रखना होता है कि उसकी भाषा कहीं अर्थ का अनर्थ न कर दे।
व्यंग्य लेखन आज केवल लेखकों तक सीमित नहीं रहा। पाठक, श्रोता और दर्शक भी इसके सहयात्री बन गए हैं। प्रतिक्रिया और समीक्षा की संस्कृति ने व्यंग्य को पारस्परिक संवाद का माध्यम बना दिया है। यही कारण है कि एक अच्छा व्यंग्यकार अपने पाठकों की प्रतिक्रिया को गंभीरता से लेता है और समयानुसार अपनी शैली में परिवर्तन करता है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में व्यंग्य लेखन केवल एक साहित्यिक अभ्यास नहीं, बल्कि सामाजिक संवाद, आलोचना और चेतना का सशक्त माध्यम बन चुका है। इसके मानक अब भाषा की शुद्धता से अधिक विचार की स्पष्टता, दृष्टिकोण की गहराई, नैतिक जिम्मेदारी और समसामयिकता की माँग करते हैं। व्यंग्य अब महज़ ‘हँसाने’ के लिए नहीं, बल्कि ‘सोचने’ और ‘बदलने’ के लिए लिखा जा रहा है—और यही उसकी सबसे बड़ी सफलता है।
विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल