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स्वतंत्रता: सिर्फ़ तारीख नहीं, ज़िम्मेदारी का दर्पण -प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)


 [प्रसंगवश – 15 अगस्त – स्वतंत्रता दिवस]

स्वतंत्रता: सिर्फ़ तारीख नहीं, ज़िम्मेदारी का दर्पण

[आज़ादी के बाद की असली लड़ाई: अदृश्य दुश्मनों से जंग]

          स्वतंत्रता का पर्व केवल एक दिन नहीं, बल्कि एक जीवंत स्मृति है, जो हमें हमारे बलिदानों की चिंगारी, संघर्षों की गाथा और सपनों की उड़ान को हमारे दिलों में जागृत करती है। 1947 में हमने अंग्रेज़ी हुकूमत की बेड़ियों को नहीं, बल्कि अपनी नियति की जंजीरों को तोड़ा। यह आज़ादी सिर्फ़ भौगोलिक सीमाओं की मुक्ति नहीं, बल्कि उस अटूट विश्वास का प्रारंभ थी, जो कहता है—हम भारतवासी अपने भविष्य को अपने हाथों से संवार सकते हैं। मगर आज, जब हम 78 साल बाद तिरंगे को नमन करते हैं, एक गहरा सवाल हमें झकझोरता है—क्या हम उस स्वतंत्रता के मोल को सचमुच जी रहे हैं, जिसके लिए लाखों प्राणों ने बलिदान दिया? क्या हमने स्वतंत्रता को केवल एक राष्ट्रीय अवकाश तक सीमित कर दिया है, या इसे अपने जीवन का हिस्सा बनाया है?

स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ़ विदेशी हुकूमत से छुटकारा नहीं है। यह उस मानसिकता से मुक्ति है, जो हमारे भीतर की शंकाओं को जलाकर राख कर दे। यह उस सोच से आज़ादी है, जो हमें दूसरों की नकल करने के लिए प्रेरित करती है, बजाय इसके कि हम अपनी अनूठी पहचान को गले लगाएँ। 1947 में हमने एक औपनिवेशिक ताकत को परास्त किया, मगर आज का दुश्मन कहीं अधिक चालाक और अदृश्य है—भ्रष्टाचार, सामाजिक गैर-बराबरी, अज्ञानता, और सबसे खतरनाक, हमारी अपनी उदासीनता। क्या हम इनके खिलाफ वही जुनून और निडरता दिखा रहे हैं, जो भगत सिंह ने फाँसी के फंदे को गले लगाते वक्त दिखाई थी? क्या हम उस दृढ़ संकल्प को जी रहे हैं, जिसके साथ गांधीजी ने सत्य और अहिंसा का रास्ता चुना था?

आज भारत दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसकी जीडीपी 2024 में 3.57 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँची, और हम 2030 तक 7 ट्रिलियन डॉलर का सपना संजोए हुए हैं। इसरो का चंद्रयान-3 चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरकर इतिहास रच चुका है, और यूपीआई जैसी डिजिटल क्रांति ने दुनिया को भारत की ताकत दिखा दी है। मगर इन चमकती उपलब्धियों के पीछे एक कड़वा सच भी छिपा है। 2023 के ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में भारत 40वें पायदान पर खड़ा है, जबकि स्विट्ज़रलैंड जैसे छोटे देश शिखर पर हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था अभी भी जूझ रही है—राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बावजूद, केवल 26% युवा ही उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। क्या यही वह स्वतंत्रता का स्वप्न है, जिसमें हर भारतीय अपनी पूरी क्षमता को छू सके?

स्वतंत्रता का सच्चा अर्थ केवल बाहरी बेड़ियों से मुक्ति नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक आत्मा को पुनर्जनन देना है। हमारी भाषाएँ, परंपराएँ और कला हमारी धरोहर हैं, फिर भी हमने उन्हें आधुनिकता की चकाचौंध में किनारे कर दिया। 2021 की जनगणना बताती है कि भारत में 19,500 से अधिक बोलियाँ और 22 अनुसूचित भाषाएँ हैं, मगर कितने बच्चे अपनी मातृभाषा में सपने संजोते हैं? यूनेस्को के मुताबिक, 37% भारतीय अपनी स्थानीय भाषा को प्राथमिकता नहीं देते। हमारी संस्कृति हमारा गौरव है, पर हम इसे विदेशी चमक के सामने फीका पड़ने दे रहे हैं। आधुनिकता का अर्थ अपनी जड़ों को काटना नहीं, बल्कि उन्हें नए युग के साथ जोड़ना है। क्या हम ऐसी शिक्षा प्रणाली बना सकते हैं, जो बच्चों को उनकी संस्कृति पर गर्व करना सिखाए, साथ ही उन्हें वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्धी बनाए?

स्वतंत्रता का एक और अनदेखा आयाम है—सामाजिक स्वतंत्रता। हमने संविधान में समानता का वादा किया, पर आज भी 2023 के आँकड़ों के अनुसार, भारत में 21% ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। लैंगिक असमानता भी बरकरार है—विश्व आर्थिक मंच की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत जेंडर गैप इंडेक्स में 129वें स्थान पर है। स्वतंत्रता का सपना तब तक अधूरा है, जब तक समाज का हर वर्ग—चाहे वह महिला हो, दलित हो, या ग्रामीण हो—वास्तविक आज़ादी का अनुभव न करे। हमें यह सवाल पूछना होगा—क्या हमारी स्वतंत्रता केवल शहरों की चकाचौंध, मॉल्स और ऊँची इमारतों तक सिमटी है? या वह उन गाँवों तक पहुँच रही है, जहाँ बिजली और स्वच्छ पानी आज भी एक दूर का सपना हैं?

लोकतंत्र हमारी सबसे बड़ी ताकत है, पर यह ताकत तभी सार्थक है, जब हर नागरिक इसमें हिस्सा ले। 2019 के लोकसभा चुनाव में 67% मतदान हुआ, जो एक उपलब्धि थी, पर 33% लोग क्यों वोट देने नहीं आए? क्या यह हमारी उदासीनता का सबूत नहीं? स्वतंत्रता की रक्षा केवल संसद में नहीं होती, यह हर उस छोटे-बड़े फैसले में होती है, जो हम अपने दैनिक जीवन में लेते हैं। जब हम रिश्वत देने से इनकार करते हैं, जब हम कूड़ा सड़क पर न फेंकने का फैसला करते हैं, जब हम किसी अन्याय के खिलाफ बोलते हैं— तब हम सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता के सिपाही बनते हैं।

आज का सबसे बड़ा खतरा है हमारी आत्मसंतुष्टि। हम यह मान लेते हैं कि स्वतंत्रता एक स्थायी उपहार है, जिसे कोई छीन नहीं सकता। मगर इतिहास चीख-चीखकर बताता है कि स्वतंत्रता नाज़ुक है। रोमन साम्राज्य हो या मिस्र की सभ्यता—वे बाहरी हमलों से कम, अपनी आंतरिक कमज़ोरियों से ज़्यादा ढहीं। आज हमारा दुश्मन बाहरी शक्तियों से ज़्यादा हमारी अपनी कमियाँ हैं—जातिवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, और सबसे खतरनाक, हमारा यह विश्वास कि “बदलाव कोई और लाएगा।” स्वतंत्रता दिवस हमें झकझोरता है, हमें याद दिलाता है कि बदलाव का बीज हर नागरिक के दिल में अंकुरित है, बस उसे सींचने की हिम्मत चाहिए।

इस स्वतंत्रता दिवस पर हमें एक ऐसा संकल्प लेना है, जो बड़े-बड़े वादों की चकाचौंध से परे हो—यह है छोटे, मगर ठोस कदमों का संकल्प। अगर हर भारतीय अपने काम में 1% ज़्यादा जुनून, अपने समाज में 1% ज़्यादा संवेदना, और अपने देश के लिए 1% ज़्यादा ज़िम्मेदारी लाए, तो ये छोटे-छोटे कदम मिलकर एक विराट क्रांति रच सकते हैं। हमें यह भी याद रखना होगा कि स्वतंत्रता सिर्फ़ हमारा अधिकार नहीं, बल्कि एक पवित्र कर्तव्य है, जो हमें हर दिन निभाना है।

लहराता तिरंगा केवल रंगों का प्रतीक नहीं, बल्कि उन अनगिनत शहीदों की कुर्बानी का आलम है, जिन्होंने अपने सपनों को हमारे भविष्य के लिए बलिदान कर दिया। हर बार जब वह हवा में फहराता है, वह हमसे सवाल करता है—तुमने मेरे लिए क्या किया? क्या तुमने मुझे और मज़बूत किया, या सिर्फ़ मेरे नाम पर सीना चौड़ा किया? स्वतंत्रता का असली जश्न तब होगा, जब हम अपने भीतर के आलस्य, भय, और संकीर्णता को हराएँगे। जब हम अपने बच्चों को सिर्फ़ डिग्रियाँ नहीं, बल्कि चरित्र की विरासत देंगे। जब हम अपनी संस्कृति को संग्रहालयों की धूल में नहीं, बल्कि अपने जीवन में जीवित रखेंगे।

यह स्वतंत्रता दिवस महज़ एक उत्सव नहीं, बल्कि एक पवित्र आत्ममंथन का क्षण है। यह वह दिन है, जब हमें ठान लेना है कि हम केवल स्वतंत्रता के वारिस नहीं, बल्कि इसके सर्जक भी हैं। लहराता तिरंगा हमें ललकारता है—उठो, जागो, और तब तक न थमो, जब तक भारत वह स्वप्निल देश न बन जाए, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राण न्यौछावर किए। एक ऐसा भारत, जो न केवल आर्थिक और वैज्ञानिक शक्ति का प्रतीक हो, बल्कि नैतिकता और सांस्कृतिक दृढ़ता का झंडाबरदार भी हो। एक ऐसा भारत, जो दुनिया को सिर्फ़ तकनीक नहीं, बल्कि शांति, सहिष्णुता और मानवता की मशाल सौंपे। यही होगी हमारी सच्ची आज़ादी की जीत।

  -  प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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