काव्य :
अबोध मां
अचानक से निगाह पड़ी
वो आज भी वैसा ही पड़ा था
खून में सना
जैसे बरसों पहले पड़ा हुआ था
चीख पड़ा मेरा मन
नहीं! अब बस,अब और नहीं
लेकिन
मैं आम नारी नहीं थी
कि रो लेती,
चित्कार तो उस दिन भी नहीं सुनी थी मेरी
जब गिड़गिड़ाई थी मैं
अबोध कन्या,लेकिन फिर भी उस दिन मेरे साथ!
फिर मैं अबोध कन्या से मां बन गई
छीन लिया गया
वो दुधमुंहा शिशु मुझसे
जो अभी पैदा ही हुआ था
अभी तो उसको निहारा भी ना था
उसका पहला नहान
नदी में हुआ
थोप दिया गया,समाज,मर्यादा
इन सबका बोझ मुझ पर
फिर से मुझे मां से हटाकर
कन्या रूप दिया गया
विवाहित नहीं थी ना,कैसे उस बच्चे की मां कहलाती
मैं नारी हूं,मुझपर ही सारी मर्यादाओं का बोझ होता है।
पहली ही रात
पति ने बाहों में भरा ही था
कि चले गए अचानक उठकर
वो भी सबसे छुपाना मेरी ही मर्यादा थी
दूसरी दुल्हन
मेरी सौतन लेकर आ गए घर में
लेकिन उसका स्वागत भी
मेरे ही जिम्मे था
फिर हर रात कैसे कटी
किसको बोलती
मां बाबा ने तो बहुत छोटे में ही
गोद दे दिया था
किसकी ममता का आंचल ढूंढती
मुझे ही अपने आंचल में लेना पड़ा
छोटी को
क्योंकि
वो सह ना सकी
इतनी सुंदर होने के बावजूद
पति का मिलन के समय
असहज होना
फिर मुझे
नियोग विधि से
अलग अलग पुरुष के साथ
पुत्र पैदा करने का आदेश मिला
क्योंकि
वंशावली तो बढ़ानी ही थी
जब भी पुत्र जन्मा
मेरा दूध सूख जाता
हर बार वो खून में सना
अबोध बालक याद आता
उसकी याद आते ही
मेरे देह से
दूध की नदियां बह जाती
इस तरह से
अपने ओर उस छोटी के पुत्र लिए
जीवन काट ही रही थी
कि देखा
वो अपनी दूसरी पत्नी से आलिंगन में
परलोक चले गए
बरसों बाद फिर मिला वो बालक
लेकिन
इस वैधव्य की हालत में
कैसे बोलती समाज में
कि
ये मेरा वही अबोध सा बालक है
जो छीन लिया था मुझसे
लोक लाज के कारण
अब इतने बरसों बाद वो फिर
गिरा पड़ा है खून में लथपथ
फर्क बस इतना था
बचपन में वो महल का फर्श था
आज
कुरुक्षेत्र की भूमि
हाय कर्ण
मेरा बच्चा
चित्कार रहा है मेरा मन
एक बार तो मेरी गोद में आ पुत्र
सीने से फिर दूध की धारा बह निकली
लेकिन अब सब मिट्टी में ही मिल रहा था
मेरा बेटा,मेरे आंचल का दूध
या बरसों से जो आंसू
आंखों में जमे पड़े थे
सब बह गए
लेकिन अब सब माटी के हवाले
- मिष्टी गोस्वामी , दिल्ली