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एकालाप शैली लघुकथा : चुप्पी का शिकारी -विभा रानी श्रीवास्तव, बेंगलूरु


 

एकालाप शैली लघुकथा : 

चुप्पी का शिकारी


 कमरे में आधी रोशनी। दरवाज़े पर परछाइयाँ काँप रही हैं। वह अकेली खड़ी है—पर उसकी आवाज़ से साफ़ है कि अकेलापन उसके भीतर का दुश्मन है।

“सुझाव!

मैं सुझाव देती हूँ—हाँ, यह सच है। लेकिन तुमने कभी सोचा?

सुझाव देना मेरी आदत नहीं—मेरा बचाव है। क्योंकि जब तुम चिढ़ते हो, जब तुम्हारी आवाज़ फटती है, मेरे आसपास हवा जमने लगती है। और मैं समझ नहीं पाती कि झुँझलाहट है, या आने वाली चोट का पूर्वाभास।

तुम कहते हो, ‘झुँझलाए हुए व्यक्ति में विवेक नहीं चलता।’

सच?

तो फिर मेरे अंदर क्यों चलने लगता है? क्यों मैं हर बार कदम पीछे खींच लेती हूँ! ताकि तुम्हारे हाथ आगे न बढ़ें?

तुम कहते हो—

‘दूरी बनाकर बात करो।’

कितनी दूरी?

एक कमरे की? एक दीवार की?

या उस डर की… जो हर पल मेरे कान में फुसफुसाता है—

“आज नहीं तो कल।”

लोगों की बातों पर मत जाओ— तुम यह भी कहते हो। लेकिन जानना चाहते हो? लोगों की आवाज़ें मुझे नहीं डरातीं। मुझे डराता है तुम्हारी खामोशी। वही खामोशी, जिसमें तुम्हारा गुस्सा आकार लेता है! और एक पल में मुझे कसकर पकड़ लेता है।

हाँ, मेरा ज़मीर ही है

जो हर रात मेरे कान में कहता है—

“झेलना मत!

भागना भी मत!

देखना!

समझना!

क्योंकि जिस दिन तू सच को पहचान लेगी,

वह दिन तुझे बचा लेगा।”

और आज—

अजीब है—

पहली बार, तुम्हारी आवाज़ से ज़्यादा तेज़ मेरा ज़मीर चिल्ला रहा है।

इतना तेज़! कि तुम्हारा गुस्सा भी इसके सामने छोटा पड़ गया है।

मैं डरती हूँ—

हाँ, मानती हूँ।

लेकिन अब डर

मुझे अंधा नहीं बना रहा—

मुझे जागा रहा है।

और इस आधी रात में!

इस अँधेरे कमरे में!

जब सब सो रहे हैं!

मैं पहली बार महसूस कर रही हूँ—

कि असली खलनायक तुम नहीं थे।

खलनायक था वह डर—

जो मैंने खुद को सौंप रखा था।

आज वह डर टूट रहा है!

चटक रहा है!

और उस चटकन की आवाज़!

मुझे तुम्हारी हर चीख से ज्यादा साफ़ सुनाई दे रही है।

अब मैं देख पा रही हूँ—

सचमुच देख पा रही हूँ!

और देखना!

सच को देखना—

किसी भी झूठे रिश्ते से अधिक शक्तिशाली होता है।”

वह धीरे से साँस छोड़ती है—

लेकिन वह साँस, आज उसके डर की आख़िरी साँस है। डर की जड़ें मन के जंगल से उखड़ चुकी हैं!


—विभा रानी श्रीवास्तव, बेंगलूरु

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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