भीड़ में अकेला
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
न्यूयॉर्क
मीरा जंक्शन पर शाम का वह पहला घंटा था जब भीड़ अपनी चरम सीमा पर थी। प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर लोगों का सैलाब था , छात्र, कर्मचारी, पर्यटक, फेरीवाले ,सभी अपनी-अपनी दिशाओं में भागते हुए।
उस भीड़ के ठीक बीच, एक सफेद कुर्ते-पायजामे वाला बूढ़ा, एक खोमचे नुमा सेलिंग डेस्क जिसे लेकर ट्रेन के डब्बे में घुसा जा सकता था, सस्ते डाट पेन सजाए बैठा था। उसके हाथ में एक पुराना अखबार था, जिसे वह घंटों से देखे जा रहा था। पेन रंग बिरंगे थे पर उनकी ओर देखने वाला कोई नहीं था। जैसे ही ट्रेन रुकती भीड़ उसके आगे से लहर की तरह गुज़रती, कभी कोई ठहरता तो पेंट की जेब से निकाल कर सिर्फ हाथ में मोबाइल लेकर देखने के लिए।
एक युवक रुका, " पेन कितने का ?"
बूढ़े ने सिर उठाया, "पांच रुपये एक।"
युवक बिना खरीदे आगे बढ़ गया। बूढ़े ने फिर से वही अखबार देखना शुरू कर दिया। उसकी आँखों में न उदासी थी, न ही निराशा। सिर्फ एक गहरा, शांत स्वीकार था जैसे वह जानता हो कि यह भीड़ उसकी नहीं है, और न ही वह इस भीड़ का है।
तभी एक लड़की, शायद बीस बाईस साल की, उसके सामने आकर ठिठक गई। उसने बिना कुछ कहे एक डाट पेन उठा लिया। बूढ़े ने धीरे से मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। लड़की ने मुस्कुराहट का जवाब मुस्करा कर दिया पर पेन वापस रखकर वह भी भीड़ में विलीन हो गई।
ट्रेन चले जाने के बाद प्लेटफॉर्म खाली हुआ । बूढ़ा अभी भी वहीं बैठा था। सामने पेन सजे हुए थे। स्टेशन की रफ्तार थम चुकी थी। प्लेटफार्म बल्ब की पीली , आंखों में गड़ती रोशनी से नहा रहा था। चारों ओर कुछ खामोशी थी । बूढ़े ने एक पेन उठाया, जेब से एक छोटी डायरी निकाली उस पर कुछ लिखना शुरू किया। एक अबोली कहानी की खुशबू कागज में उतरती चली गई।
"वह अकेला था। पर शायद उसे अकेलेपन का एहसास नहीं था। क्योंकि भीड़ में रहकर भी वह अकेला था, तो अब जब भीड़ चली गई थी, तो भी वह तो वही था । अपनी जगह, अपने डाट पेन के बिना बिके सारे स्टॉक के साथ, पूरी तरह से अपने में पूरा। उसकी प्रतीक्षा शायद किसी ग्राहक की नहीं, बल्कि उस क्षण की थी जब , भीड़ थमे और वह खुद से मिल सके। वह कागज पर उतर रहा था, खुद से मिलते हुए।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
न्यूयॉर्क से
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