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स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी : वैश्विक स्वतंत्रता की प्रतीकात्मक मूर्ति - विवेक रंजन श्रीवास्तव , न्यूयॉर्क से


स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी :  वैश्विक स्वतंत्रता की प्रतीकात्मक मूर्ति 

 - विवेक रंजन श्रीवास्तव 

न्यूयॉर्क से 

     स्वतंत्रता का कोई  आकार नहीं होता, पर जब वह न्यूयॉर्क हार्बर के मध्य लिबर्टी द्वीप पर अथाह जलधारा के बीच खड़ी हो कर हवाओं से बातें करती है तो वह एक वैश्विक जीवंत प्रतीक बन जाती है। स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी अर्थात "लिबर्टी इनलाईटिंग द वर्ल्ड" की कहानी फ्रांस द्वारा वर्ष 1886 में अमेरिका को भेंट किया गया विचारों, संघर्षों और दोस्ती की उस स्वतंत्र यात्रा की प्रतीकात्मक भेंट  है जो मनुष्य को मनुष्यता के पथ पर चलने की राह दिखाती है। 

फ्रांस में बैठे बुद्धिजीवियों ने जब उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यह सोचा कि अमेरिका को एक ऐसी भेंट दी जाए जो आज़ादी और मानव गरिमा की आकांक्षा को व्यक्त कर सके, तब शायद उन्होंने भी कल्पना न की होगी कि यह प्रतिमा एक दिन पूरी दुनिया में  अमेरिका का भावनात्मक प्रतीक बन जाएगी। यह प्रतिमा रोमन देवी लिबर्टस से प्रेरित है। मूर्ति के हाथों में अमेरिका की स्वतंत्रता ,  4 जुलाई 1776 की तारीख की तख्ती है । फ्रांस ने अमेरिकन क्रांति में दोस्ती के प्रतीक स्वरूप  इसे अमेरिका को भेंट किया था। 28 अक्टूबर 1886 को इस स्मारक का उद्घाटन हुआ था। स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की मूर्ति 151 फीट ऊंची है। पैडस्टल सहित स्मारक की कुल ऊंचाई 305 फीट है। तांबे की आवरण परत के कारण ऑक्सीडेशन से इसका रंग हरा पड़ गया है।1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर घोषित किया था।

फ्रांसीसी विचारक और सहयोगियों ने आज़ादी और मानवाधिकारों का संदेश देती  विराट प्रतिमा का विचार रखा और मूर्तिकार बार्थोल्डी ने उसे रूप देना शुरू किया। यह मूर्ति कठोर सम्मिश्रित धातु की चादरों से गढ़ी गई, पर इसमें मानवीय भावनाओं का भावनात्मक ताप भी भरा हुआ था। इसके भीतर का ढांचा इंजीनियरों की बुद्धिमत्ता का प्रमाण है, जिसने इसे समुद्री हवाओं की मार से भी सुरक्षित रखा हुआ है। यह प्रतिमा अपने आप में कला और विज्ञान का संगम था, जैसे किसी छंद में पिरोई सुंदर कविता के पीछे पंक्तियों में छिपा  गणित ।

जब प्रतिमा आकार ले रही थी, तब उसे अमेरिका में खड़े करने के लिये मजबूत पेडेस्टल बनाने की ज़िम्मेदारी अमेरिकी जनता ने उठाई। फंड जुटाने के अनगिनत प्रयास हुए, नाटकों से लेकर प्रदर्शनियों तक, व्यापक जन भागीदारी हुई और अंततः यह सहयोग दोनों देशों की आम जनता की मित्रता की एक अनूठी मिसाल बन गया। तैयार प्रतिमा सैकड़ों टुकड़ों में  समुद्र पार भेजी गई और जब वह न्यूयॉर्क पहुंची, तब लोगों ने उसे सिर्फ धातु का ढांचा नहीं, एक उम्मीद का पैगाम समझ दिल से उसका स्वागत किया। पेडेस्टल पूरा होते ही , स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी खड़ी की गई और उसकी ऊंचाई आसमान को छूते हुए मनुष्य की वैश्विक स्वतंत्रता की मुखर नैसर्गिक आकांक्षा का स्थायी स्मारक बन गई। जिस दिन इसका लोकार्पण हुआ, उस दिन यह तय हो गया कि यह प्रतिमा सिर्फ अमेरिका की नहीं, उन सबकी अभिव्यक्ति का भाव है जो प्रगति और  स्वतंत्रता में विश्वास रखते हैं।

स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी के हर हिस्से की अपनी प्रतीकात्मक भाषा है।  हाथों में  मशाल एक राह दिखाती है जो तमाम अंधेरों को पीछे छोड़ कर प्रकाश की ओर चलने की प्रेरणा देती है। दूसरी भुजा में टेढ़े मेढ़े रास्तों का संक्षेप है, जिस पर तख्ती में अमेरिकन क्रांति की वह तिथि अंकित है जब मनुष्यों ने यह घोषित किया था कि किसी भी शासन से ऊपर मानव की स्वतंत्र इच्छा है। उसके चरणों के समीप टूटी जंजीरें इस बात की गवाही देती हैं कि गुलामी चाहे कितनी भी पुरानी क्यों न हो, उसे तोड़ने का साहस एक दिन जरूर जागता है। यही साहस इस प्रतिमा को वैचारिक रूप से उसकी ऊंचाई से भी ऊंचा स्थान देता है।

बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में जब लाखों प्रवासी समुद्र पार कर अमेरिका की ओर चले, तब यह प्रतिमा उनके लिये खुले सपनों की पहली झलक थी जिसने दिल को आश्वस्त किया कि वे एक नए वैश्विक स्वतंत्र अध्याय की रचना करने बढ़ रहे हैं। अनगिनत आंखों ने इसे देखा और अपनी उम्मीदों को इसके साथ जोड़ लिया। यही वह क्षण है जब यह प्रतिमा मनुष्य के सामूहिक सपने की प्रहरी बन गई। आगे चलकर इसे राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा मिला और समय समय पर इसके संवर्द्धन होते रहे, पर इसके अर्थ की भावनात्मक ऊंचाई कभी नहीं घटी।

आज जब आधुनिक दुनिया की जटिलताएं बढ़ रही हैं, तब भी स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी अपनी जगह पर अडिग खड़ी है और मानवता को याद दिलाती  है कि स्वतंत्रता किसी राष्ट्र की नहीं, पूरी मानव जाति की प्राकृतिक आवश्यकता है। वह सिखाती है कि अधिकार सिर्फ मिलते नहीं, उनकी रक्षा भी करनी पड़ती है। वह यह भी याद दिलाती है कि आज़ादी का कोई अंत नहीं, उसका सफर हमेशा चलता रहता है।

समुद्र की लहरें उसके पांवों से टकराती हैं, हवाएं उसकी मशाल को छूकर आगे निकल जाती हैं, पर वह डगमगाती नहीं। उसे पता है कि वह केवल तांबे और लोहे का ढांचा नहीं, बल्कि मनुष्य की आंतरिक शक्ति का जीवंत रूप है। इसी कारण हर आने वाला युग हर नई पीढ़ी उसे अपने संदर्भ में पढ़ती है और हर देखने वाली आंख उसके अर्थ को अपने अंतस में खोजती है। यही स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की असली महानता है कि वह स्मारक होकर भी जीवित है और प्रतीक होकर भी मनुष्य के दिल की धड़कनों से बात करती है। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी के निहित संदेश और भी प्रासंगिक हो चले हैं। 

विवेक रंजन श्रीवास्तव 

न्यूयॉर्क से

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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