काव्य :
वह खारी बूँद
सुचिते!
वह खारी बूँद
अपने बच्चे की आँखों में
दिखी माँ को, वह रो पड़ी
मगरमच्छ की आँख से निकली
कोई फर्क नहीं पड़ा किसी को भी
दिखी एक खिलखिलाहट में
रात की किरमिजी आँखों में
लगा सारी कायनात हँस पड़ी है,
सुनो सुनयने!
कभी भी खारापन नहीं देखा!
मैंने तुम्हारी आँखों में,
पर मैं रोया बहुत हूँ तुम्हारी याद में,
तुम कभी रोयी नहीं,
न दुःख में न उल्लास में,
न कभी विरह में
इसीलिये अभी भी बाकी है
बहुत सारा खार तुम में
और हाँ, देखो!
मैं मीठा हो गया हूँ।
रामनारायण सोनी,इंदौर
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