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कजली महोत्सव : बहिन और बेटियों का विशेष रूप से त्यौहार -ऊषा सक्सेना , भोपाल


 

बुंदेलखंड का लोकपर्व:-(श्रावण पूर्णिमा )

कजली महोत्सव : बहिन और बेटियों का विशेष रूप से त्यौहार 

               भारतवर्ष एक कृषि प्रधान देश था जिसमें कृषि पर ही लोगों का सारा जीवन निर्भर करता था ।उसी के आधार पर ही इन रीति रिवाज तीज- त्यौहार और परम्पराओं का जन्म हुआ । रक्षाबंधन का यह  त्यौहार तो सभी मनाते हैं लेकिन इस दिन कजरियों का भी त्यौहार होता है ।जिसेअब भी गांव और कस्बे के लोग परम्परा के रूप में  मनाते हैं । हर त्यौहार की पृष्ठ भूमि का कोई न कोई आधार होता है । आज आवश्यकता है हमें उसके पीछे छिपे मनोवैज्ञानिक तथ्य को जानने की ।

    यह बुंदेलखंड का विशेष त्यौहार है जिसे शान से मनाया जाता है विजयोत्सव के रूप में । सावन के महीने में कजली देवी को प्रसन्न करने के लिये नाग पंचमी के दूसरे दिन ही घर की बहिन बेटियां अपने खेत से मिट्टी लाकर प्लाश के पत्तों के दोनों में उस मिट्टी को भर कर यह जानने के लिये की इस बार हमारे खेतों की फसल कैसी होगी ? अनाज के दानों को उसमें बोकर नौ दिन तक ज्वारों की तरह पवित्र पूजा के एकांत स्थान में रखकर उनको शुद्ध जल से सींचते हुये पूजा की जाती है । पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन के बाद गांव की सभी बहिन बेटियां तालाब या नदी में उनकी मिट्टी बहा कर उन्हें खोंट कर लाती हैं । फिर जान पहचान वाले सभी घरों में बहिन बेटियां ही वह  कजरियां देने के बहाने मिलने जाती हैं । यह एक प्रकार से बहिन बेटियों का मिलन उत्सव भी होता है। बिना किसी भेदभाव के गांव की बहिन बेटी सभी की बहिन बेटी होती थी । इसलिये बिना किसी भेदभिव के सभी घरों में उनको बड़े आदर सम्मान के साथ बिठा कर उनका स्वागत करते हुये सम्मान में भेंट उपहार दिया जाता ।यह एक प्रकार से वह पारम्परिक प्रथा थी जहां सभी प्रेम से एक दूसरे के साथ मिल कर अपना सुख दुख बांटते कहते सुनते रहते थे ।

महोबा का कजली महोत्सव :-

     महोबा में कजली का त्यौहार बड़े ही धूमधाम से पूर्णिमा के दूसरे दिन विजयोत्सव के रूप में इसे मनाते हैं । इसका कारण पृथ्वीराज चौहान के द्वारा चंदेल राजा परिमार्दिदेव की पुत्री चंद्रावलि का जो की कीरत सागर तालाब में जहां वह अपनी सहेलियों के साथ कजरियां खोंटने जाती थी वहीं से उसका अपहरण करने की योजना थी वह इस समय महोबा को अपने अधिकार में  लेकर उस पर अपना परचम फहराना चाह रहे थे । किंतु आल्हा-ऊदल के पराक्रम से उन्हें मुंह की खानी पड़ी ।्कीरत तालाब के मैदान में यह युद्ध तीन दिन और रात चला । जिसमें पृथ्वीराज घायल होकर जमीन पर गिर पड़े वह अब आल्हा की तलवार की नोक पर थे । जब आल्हा उनका वध करने लगे तो उनके गुरू गोरख नाथ ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुये कहा यह तुमसे युद्ध में हार  कर निहत्था होकर आज तुम्हारा शरणागत है अत: इसकी हत्या करने के स्थान पर इसका ही सम्मान छीन लो । आज यह  महोबा की बेटी का हरण  करने आया था । एक राजपूत राजा का सम्मान उसकी बेटी होती है तुम इसकी तलवार को तो हरा ही चुके अब इसकी बेटी का विवाह राजकुमार ब्रह्मा के साथ करके इसका सम्मान भी छीन लो । इससे दोनों राज्यों की शत्रूता भी समाप्त हो जायेगी । एक दिन और रात युद्ध होने के कारण दूसरे दिन चंद्रावली के साथ सभी ने इस दिन को विजयोत्सव के रूप में मनाते हुये यह त्यौहार मनाया ।तब से लेकर आज तक महोबा  के आस पास के सभी क्षेत्रों में इसे एक मेले के रूप में आयोजित कर धूमधाम से मनाते हैं । चंदेलों की राजधानी महोबा का पहले नाम ही महोत्सव था जो बाद में महोबा होगया ।

    -  ऊषा सक्सेना , भोपाल (मध्य-प्रदेश)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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