2025 की बिदाई के महीने में: उत्सव, पुरस्कार और विमर्श के बीच साहित्य
...विवेक रंजन श्रीवास्तव
प्रबुद्ध व्यंग्यकार आलोचक
भोपाल
आजकल न्यूयॉर्क में
2025 साहित्यिक हलचलों से भरापूरा रहा। एक ओर अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों और नोबेल सम्मान ने साहित्य को मानवीय अधिकारों, विस्थापन और स्मृति जैसे सवालों से जोड़ते हुए नए अर्थ दिए, तो दूसरी ओर भारत में साहित्य अकादेमी पुरस्कारों, बड़े साहित्यिक संस्कृतिक उत्सवों और प्रकाशन जगत ने हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के भविष्य की संभावना के सफर में कई सोपान पार किए ।
इसी वर्ष कई महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के निधन ने भी यह एहसास दिलाया कि साहित्य केवल समकालीन विमर्श नहीं, बल्कि एक दीर्घकालीन सामूहिक स्मृति है, जिसमें हर विदा एक रिक्ति छोड़ जाती है।
साहित्य का नोबेल 2025 भी बीते कई वर्षों की तरह सौंदर्यबोध से आगे बढ़कर राजनीति और नैतिकता के सवालों के बीच अपनी जगह बनाता दिखाई दिया। यह पुरस्कार उस रचनाशील व्यक्तित्व को मिला जिसकी लेखनी ने अपने समय के हिंसा ग्रस्त, विस्थापित और पहचान के संकट से जूझते समुदायों को अपनी कलम से आवाज़ दी, और भाषा ,राजनीति, स्मृति तथा न्याय जैसे प्रश्नों को कथा कला के ज़रिये तीखी लेकिन करुण दृष्टि से समाज के सम्मुख रखा। इस चयन ने यह रेखांकित किया कि विश्व साहित्य के बड़े मंच अब तथाकथित ‘मुख्यधारा’ के बजाय हाशिए की दुनिया को केंद्र में लाने का साहस दिखा रहे हैं। 2025 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार हंगरी के लेखक लास्ज़लो क्रास्ज़नाहोरकाई (László Krasznahorkai) को उनकी प्रभावशाली और दूरदर्शी गद्य शैली के लिए दिया गया है, जो सर्वनाशकारी विषयों के बीच कला की शक्ति और मानवीय भावनाओं को दर्शाती है. स्वीडिश एकेडमी ने अक्टूबर 2025 में इस पुरस्कार की घोषणा की थी.
नोबेल के साथ ही वर्ष 2025 में यूरोप, अमरीका और अन्य क्षेत्रों में आयोजित अनेक पुस्तक महोत्सवों और राइटर्स फेस्टिवलों ने भी साहित्य को लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप के विरुद्ध संघर्ष से जोड़कर प्रस्तुत किया । न्यूयॉर्क में आयोजित ‘वर्ल्ड वॉयसेज़ फ़ेस्टिवल 2025’ जैसे आयोजनों में कई देशों के लेखक जुटे, जहाँ कथा, कविता, संस्मरण और निबंध के माध्यम से यह बहस हुई कि डिजिटल पूँजीवाद, युद्ध, जलवायु संकट और माइग्रेशन के दौर में लेखन की ज़िम्मेदारी क्या होनी चाहिए। ऐसे आयोजनों ने यह संदेश दिया कि साहित्य आज भी सत्ता संरचनाओं के बरक्स एक आलोचनात्मक, मानवीय और विश्व नागरिक चेतना का माध्यम बन सकता है।
भारतीय संदर्भ: साहित्य अकादेमी और भाषाविविधता
भारतीय परिदृश्य में 2025 की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्थागत घटना साहित्य अकादेमी द्वारा घोषित पुरस्कार रहे, जिनमें मुख्य अकादेमी पुरस्कार के साथ ‘युवा पुरस्कार’ और ‘बाल साहित्य पुरस्कार’ शामिल थे। अकादेमी ने 24 भारतीय भाषाओं में रचनाओं को सम्मानित करके यह दिखाया कि हिंदी, बंगाली, तमिल, मराठी, उर्दू जैसी बड़ी भाषाओं के साथ साथ कोंकणी, बोडो, संताली, डोगरी, राजस्थानी, मैथिली आदि भाषाओं में हो रहे सृजन को भी समान रूप से गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इससे ‘राष्ट्रीय साहित्य’ की अवधारणा, जो लंबे समय तक कुछ केंद्र भाषाओं तक सीमित मानी जाती थी, अब विविध क्षेत्रीय जातीय सांस्कृतिक परिदृश्य तक फैलती नज़र आई। जो देश की विविधता का साहित्यिक सम्मान नजर आ रहा है।
युवा पुरस्कारों के माध्यम से 23 नवोदित लेखकों को मान्यता मिली, जिनकी रचनाएँ शहर और गाँव के नए तनावों, पलायन, नौकरी ,संस्कृति, लैंगिक असमानता, पर्यावरण संकट, तकनीकी बदलाव और आध्यात्मिकता की नई खोज को केंद्र में रखती हैं। इन युवाओं की भाषा में एक तरफ़ लोक अनुभव की जड़ें हैं, तो दूसरी ओर वैश्विक संदर्भों की खुली हवा भी अभिव्यक्त हो रही है। इसीलिए उनकी कविता और कथा में ‘स्थानीय’ और ‘वैश्विक’ अनुभव एक साथ संवाद करते दिखते हैं।
बाल साहित्य पुरस्कारों के ज़रिये 24 रचनाकारों को सम्मान मिला, जिन्होंने बच्चों के लिए ऐसी किताबें लिखीं जिनमें लोक कथा, विज्ञान, पर्यावरण, हास्य और मानवीय संवेदना को जोड़कर नई पीढ़ी के लिए एक जीवंत, कल्पनाशील और नैतिक रूप से संवेदनशील पाठ्य जगत तैयार किया गया।
निश्चित ही सम्मान, पुरस्कार लेखकीय ऊर्जा होते हैं। राज आश्रय से परे ढेरों संस्थान देश में कई साहित्यिक पुरस्कार आयोजन कर रहे हैं, जिनके चलते साहित्यिक समाचार सुर्खियां बनते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल की अब तक की सर्वाधिक रॉयल्टी हिंद युग्म प्रकाशन द्वारा दी गई । 2025 की हिंदी दुनिया में ये सबसे उत्साहजनक घटनाओं में से एक रही । वरिष्ठ कथाकार, कवि विनोद कुमार शुक्ल को एक ही पुस्तक पर मिली यह असाधारण रॉयल्टी, उनकी बहुचर्चित कृति ‘दीवार में खिड़की रहती थी’, जो मूलतः दशकों पहले प्रकाशित हुई थी, के नए संस्करणों की अप्रत्याशित बिक्री के परिणामस्वरूप (लगभग 30 लाख रुपये की रॉयल्टी ,करीब छह महीनों की अवधि के लिए) उन्हें प्राप्त हुई। इस घटना ने सोशल मीडिया से लेकर पत्र पत्रिकाओं तक व्यापक चर्चा छेड़ दी,क्योंकि आम धारणा यही रही है कि हिंदी में लेखक को आर्थिक रूप से सम्मानजनक प्रतिफल शायद ही कभी मिल पाता है। रॉयल्टी के विपरीत हिंदी लेखक अपने ही पैसे से किताबें प्रकाशित करवा रहे हैं।
यह रॉयल्टी हिंदी युग्म जैसे अपेक्षाकृत नए प्रकाशक द्वारा दी गई, जिसने आक्रामक मार्केटिंग, सुंदर कलेवर, उचित मूल्य निर्धारण और ऑनलाइन ,ऑफ़लाइन दोनों चैनलों का उपयोग करके एक लगभग ‘क्लासिक’ हो चुकी कृति को नए पाठक वर्ग तक पहुँचा दिया। रिपोर्टों में यह संकेत मिलता है कि कुछ ही महीनों में इस एक किताब की 80से 90 हज़ार के आसपास प्रतियाँ बिकीं, जो हिंदी के लिए इन दिनों असामान्य सा आँकड़ा है। इससे दो बातें स्पष्ट हुईं, पहली, कि यदि पारदर्शी रॉयल्टी प्रणाली और मज़बूत वितरण रणनीति अपनाई जाए तो हिंदी में भी लेखक आर्थिक रूप से सम्मानजनक स्थिति हासिल कर सकता है। दूसरी, कि पाठकों के बीच गंभीर, जटिल और कलात्मक साहित्य के लिए भी पर्याप्त जिज्ञासा और तैयार मनोवृत्ति नई पीढ़ी में भी मौजूद है।
पिछले वर्षों में विनोद शुक्ल की रॉयल्टी को लेकर पुराने प्रकाशकों से हुए विवादों और संघर्षों ने यह प्रश्न बार बार उठाया था कि हिंदी में कॉपीराइट और रॉयल्टी की व्यवस्था कितनी पारदर्शी और न्यायपूर्ण है। 2025 की यह घटना उस संघर्ष के एक सकारात्मक पड़ाव की तरह दिखी, जिसने हिंदी प्रकाशन जगत को अपने तौर तरीकों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया और युवा लेखकों को यह आश्वस्ति भी दी कि वे अपने श्रम के आर्थिक अधिकारों को लेकर मुखर हो सकते हैं।
आशा करना चाहिए कि इस घटना के दूरगामी साहित्यिक प्रभाव आगामी बरसों में देखने मिलेंगे ।
आजतक का साहित्य उत्सव: मीडिया और साहित्य का संगम
2025 में आजतक जैसे बड़े न्यूज़ चैनल द्वारा आयोजित साहित्य उत्सव ने यह दिखाया कि ‘न्यूज़ इंडस्ट्री’ और ‘लिटरेरी पब्लिक स्फ़ेयर’ के बीच की दूरी लगातार कम हो रही है। इस मंच पर कथाकारों, कवियों और आलोचकों के साथ साथ टीवी एंकर, फ़िल्म निर्माता, स्टैंड अप कॉमेडियन और डिजिटल कंटेंट क्रिएटर भी संवाद में शामिल हुए। इन सत्रों में राजनीति, धर्म, जाति, स्त्री विमर्श, दलित बहुजन चिंतन, पहचान की राजनीति और अभिव्यक्ति की सीमाओं पर खुलकर बातचीत हुई कभी बहस के रूप में, कभी सहज बातचीत के रूप में।
इस उत्सव का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा कि साहित्य को केवल ‘गंभीर’ और ‘संकुचित’ बौद्धिक दायरे से बाहर निकालकर उसे एक लोकप्रिय, टेलीविज़न फ्रेंडली रूप में देश भर के दर्शकों तक पहुँचाया गया। यहाँ राय निर्माण और ‘ट्रेंड’ बनने की प्रक्रिया लाइव टीवी और सोशल मीडिया के ज़रिये एक साथ चलती है; इसलिए यह उत्सव साहित्य के ‘माध्यमिकरण’ (mediatization) का भी उदाहरण बनता है, जहाँ रचनाकार को यह देखना पड़ता है कि उसकी बात किस तरह क्लिप, रील और वायरल अंशों में बदलेगी, और फिर भी वह अपने विचार की जटिलता और ईमानदारी को कैसे बचाए रखे।
‘विश्व रंग’ और अन्य बड़े महोत्सव: वैश्विक क्षितिज पर हिंदी
भोपाल से शुरू हुआ ‘विश्व रंग’ 2025 तक आते आते हिंदी और भारतीय भाषाओं के बड़े अंतरराष्ट्रीय साहित्य कला उत्सवों में शुमार हो चुका है। इस वर्ष के संस्करण में कविता, कहानी, नाटक, आलोचना, लोक कलाओं, चित्रकला, संगीत और सिनेमा को एक साझा मंच पर रखकर यह दिखाने की कोशिश की गई कि भाषा कला और दृश्य कला के बीच की रेखाएँ कितनी तरल होती जा रही हैं। भारत के विभिन्न राज्यों के साथ साथ यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई रचनाकारों की भागीदारी ने इसे ‘वैश्विक दक्षिण’ के एक बड़े सांस्कृतिक संवाद स्थल में बदल दिया।
‘विश्व रंग’ के कई सत्र अनुवाद पर केंद्रित रहे क्योंकि हिंदी और भारतीय भाषाओं को विश्व पटल पर मज़बूत बनाने के लिए अनुवाद ही वह सेतु है, जो स्थानीय अनुभूतियों को अंतरराष्ट्रीय पाठकों तक पहुँचाता है। यहाँ यह चर्चा भी हुई कि अनुवाद केवल भाषा बदलाव नहीं, बल्कि सत्ता संबंधों, बाज़ार की रणनीतियों और वैचारिक चयन से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। कौन सा लेखक अनूदित होगा, किस भाषा में, किस पाठक समूह के लिए, ये सब जटिल प्रश्न हैं। इसी के समानांतर देश भर में अलग अलग शहरों में होने वाले साहित्य उत्सवों और पुस्तक मेलों ने यह दिखाया कि अब साहित्यिक गतिविधियाँ केवल दिल्ली या कुछ महानगरों तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि छोटे मोटे शहर भी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के साथ इस परिदृश्य में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं। दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला हर वर्ष ढेरों नई किताबें और विमर्श के नए बौद्धिक आयाम लाता है। भोपाल से भी स्तरीय किताबें , तथा नियमित लेखन किया जा रहा है। और भोपाल साहित्य का मुखर स्वर बन रहा है।
लेखकों के निधन और साहित्यिक स्मृति
2025 के वर्ष में जहाँ एक ओर उत्सवों और पुरस्कारों से भरी हलचल रही, वहीं दूसरी ओर कुछ महत्त्वपूर्ण वैश्विक और भारतीय लेखकों के निधन ने साहित्य जगत को शोकाकुल भी किया। विश्व साहित्य में समलैंगिक जीवन, आधुनिकता, अकेलेपन और प्रेम के जटिल अनुभवों को सूक्ष्मता से दर्ज करने वाले अमेरिकी उपन्यासकार एडमंड व्हाइट का 85 वर्ष की आयु में निधन हुआ। उनकी रचनाएँ केवल व्यक्तिगत कामुकता की नहीं, बल्कि उस सामाजिक और राजनीतिक माहौल की गवाही भी हैं, जिसमें LGBTQ+ समुदाय ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
इसी वर्ष अन्य अनेक देशों के लेखकों, समीक्षकों और अध्येताओं के निधन दर्ज हुए, जिनके नाम और कृतियाँ विभिन्न प्लेटफ़ॉर्मों पर ‘2025 में विदा हुए लेखक’ जैसी सूचियों के रूप में संकलित की गईं। ऐसी सूचियाँ यह याद दिलाती हैं कि समकालीन पाठक जिन किताबों को आज सामान्य मानकर पढ़ता है, उनके पीछे दशकों की साधना, संघर्ष, आर्थिक असुरक्षा और अक्सर सामाजिक अस्वीकार भी छिपा होता है। किसी लेखक का निधन केवल ‘एक व्यक्ति की मृत्यु’ नहीं, बल्कि एक विशिष्ट संवेदना जगत, एक विशिष्ट भाषा लहजे और अनुभव दृष्टि का अवसान भी होता है, जिसे केवल उसकी किताबें ही भविष्य के लिए बचाकर रख पाती हैं।
2025 में हिंदी के कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों का निधन हुआ, जिनमें भोपाल के प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’जिन्होंने गीता, मेघदूत, रघुवंश जैसे ग्रंथों का हिंदी भाव अनुवाद किया, और उन्हें भारतीय भाषा परिषद के सम्मान से सम्मानित किया गया था, प्रो राम दरश मिश्र, कहानीकार राजी सेठ लखनऊ के वरिष्ठ व्यंग्यकार अनूप श्रीवास्तव, गोपाल चतुर्वेदी आदि का जाना साहित्य जगत को रिक्तता का अहसास करा गया ।
2025: साहित्य की दिशा पर समेकित दृष्टि
इन सारी घटनाओं , नोबेल सम्मान, साहित्य अकादेमी पुरस्कारों, विनोद कुमार शुक्ल की रॉयल्टी, आजतक का साहित्य उत्सव, ‘विश्व रंग’ जैसे अंतरराष्ट्रीय महोत्सवों और अनेक रचनाकारों के निधन को एक साथ समग्रता से देखें तो 2025 साहित्य के लिए एक द्वंद्वपूर्ण लेकिन आशाजनक वर्ष के रूप में सामने आता है। एक ओर पुरस्कार और उत्सव यह दिखाते हैं कि साहित्य अब भी सांस्कृतिक प्रतिष्ठा और सार्वजनिक संवाद का एक प्रमुख माध्यम है, दूसरी ओर रॉयल्टी, कॉपीराइट और मार्केटिंग से जुड़ी बहसें साफ़ करती हैं कि रचनाकार के श्रम का आर्थिक न्याय अभी अधूरा है, लेकिन उसकी दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठने लगे है।
साथ ही, वैश्विक और भारतीय मंचों पर हाशिए के समुदायों दलित, आदिवासी, स्त्री, प्रवासी, अल्पसंख्यक की आवाज़ों को बढ़ती प्रमुखता मिलना यह संकेत देता है कि भविष्य का साहित्य और अधिक बहुवचन, अधिक लोकतांत्रिक और अधिक आत्म आलोचनात्मक होगा। साहित्यिक उत्सवों का ‘मीडियाकरण’ जहाँ एक जोखिम और चुनौती है, वहीं यह अवसर भी है कि लाखों लोग उन बहसों से परिचित हों, जो पहले केवल पत्रिकाओं के सीमित पाठक समूह तक पहुँचती थीं। इस अर्थ में 2025 को ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जा सकता है जिसमें साहित्य ने बाज़ार और मीडिया के दबावों के बीच भी अपने मानवीय, आलोचनात्मक और स्वप्नद्रष्टा रूप को बचाए रखने की ज़िद जारी रखी।
0
.jpg)
