काव्य :
भागवत गीता-अध्याय छह-ध्यानयोग
योग अर्थात् ईश्वर से
सम्बंध स्थापित करना
चार योग,कर्मयोग,ज्ञानयोग,
ध्यानयोग ,भक्तियोग ।
कृष्ण कहते है जो अपने
कर्त्तव्य का पालन करते हुए
कर्मफल के प्रति अनासक्त है
वहीं सन्यासी,योगी है।
अष्टांग योग के नवसाधकों
के लिए कर्म ही साधन हैं ,
वनएकांतवास ,कठिन जीवन
तपस्या करता अष्टांग योगी
कहाँ ये योग सरल है?
मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है शत्रु भी,
हे मधुसूदन ,मैं वायु को वश
में कर लूं ,मन कैसे वश में करूँ?
मै तो ठहरा क्षत्रीय,संन्यास कैसेचुनूँ?
हे पृथापुत्र ,चंचल और हठीला मन,
अभ्यास और वैराग्य से है सधता
अभ्यास , सर्वश्रेष्ठ योग -
भक्तियोग के नियमों का
आत्मा से प्रभु की सेवा का,
हरे राम, हरे कृष्ण मंत्रोच्चार ,
वैराग्य,पापकर्म,असत्य संगत,
त्याग अधर्म,अर्थात्,जुआ,नशा
मांसाहार ,अवैध संबंधों का।
योगी के लिए सभी समान,
मित्र, शत्रु, मान-अपमान,
दीर्घकालिक-अल्पकालिक ,
असफलयोगी भी स्वर्गलोक मे
अनेक वर्षों तक भोग कर पुनः
सदाचारी और धनवान कुल मे
ज्ञानधन के साथ लेते जन्म
आध्यात्मिक संचित पूँजी संग,
यात्रा शुरू करते अगले जन्म,
अपूर्णलक्ष्य प्राप्ति की जन्मो
जन्म की यात्रा से मुक्तिधाम जाते।
क्षणभर का योग,रक्षासूत्र खतरों का,
हे अर्जुन, आध्यात्मिक जीवन का
पालनकर्ता कभी निराश नहीं होता।
योगी-तपस्वी,ज्ञानी सकामकर्मी
से भी बढ़कर होता ,
सभी परिस्थतियों मे जो,
योग ईश्वर की प्रसन्नताहेतु
करता,मुझमे परम अंतरंग
रूप मे युक्त रहता,सभी मे सर्वोच्च।
अतः तुम सभी प्रकार से योगी बनो।
- रानी पांडेय
रायगढ़ छत्तीसगढ ।