लघुकथा:
शीशे का घर
वर्षों बाद अभि विदेश से लौटा। जैसे ही उसे चाचा-चाची के निधन का पता चला, उसका मन बेचैन हो उठा। लेकिन उससे ज़्यादा बेचैनी बिंदी की खामोशी ने दी—उसकी बचपन की सबसे गहरी दोस्त, जिसने कभी हर छोटी बात पर उसे हँसाया था, अब वर्षों से किसी भी संदेश का उत्तर नहीं दे रही थी।
अभि को भरोसा था—बिंदी ऐसी नहीं हो सकती। ज़रूर कोई बात है।
जब वह उनके पुराने घर पहुँचा, तो एक अजीब-सी चुप्पी दीवारों से टकरा रही थी। जिस कमरे में कभी हँसी-ठहाकों की गूंज होती थी, वहाँ अब सन्नाटा पसरा था।
बिंदी के कमरे में एक पुराना पलंग, मेज, कुर्सी, और चाचा की पुरानी टेबल पर रखा प्रभु का चित्र, कपड़ों से भरा कूट का डिब्बा—सब कुछ बिंदी की गुमनाम पीड़ा का प्रमाण था।
कमरे के कोने में बैठी बिंदी की आँखें बोल रही थीं, लेकिन आवाज़ जैसे कहीं गुम हो चुकी थी।
उसी वक्त अंतिम कमरे से हँसी-ठहाकों की आवाजें आने लगीं, जो अभि के कानों में किसी पिघले सीसे की तरह उतरने लगीं। वह चुपचाप उस तरफ बढ़ गया।
वहाँ उसकी बहनें, भाभियाँ और उनके बच्चे पार्टी में मस्त थे। उसे देखते ही सब उसकी आवभगत में लग गए।
"अरे अभि ! आओ बैठो, लंदन से वापस कब आये?"
अभि ने उनकी तरफ देखा और ठहरे स्वर में कहा --
"मैं इस घर में किसी को जानता हूँ तो वो है बिंदी। उसी से मिलने आया हूँ।"
सब चुप। एक ने कहा,
"उस कमरे में रखा ही क्या है? न एसी, न कूलर, न पहले जैसी रौनक। वहाँ तो बस आँसू बहाती बिंदी है।तुम जैसे लोग वहाँ एक पल भी नहीं टिक सकते
अभि की आँखों में नमी उतर आई।
"उसी पुराने कमरे में आज भी मेरा बचपन सांस लेता है। चुने से पुता वो कमरा और उसमें रहने वाली बिंदी—उनकी बराबरी हम जैसे महंगे प्लास्टिक पेंट में रहने वाले लोग कर भी नहीं सकते।"
"वो बिंदी, जो आज आँसू बहा रही है, वही बिंदी कभी माँ-बाप के हर आँसू पोंछती थी, आपलोगो की एक पुकार पर दौड़ती थी , जो इस घर की नींव में अपनी हर साँस, हर पल समेट कर जीती रही। और आज... आज वही इस घर में सबसे अलग, सबसे अकेली है।"
बिंदी कोई बोझ नहीं है। वो तो वो दीवार है, जो इस घर को अब तक थामे हुए है।"
आप सबने शीशे का घर तो बना लिया, मगर उसमें बिंदी जैसी आत्मा के लिये कोई जगह नहीं रखी।
- तनुजा सिन्हा, पटना, बिहार