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कहानी : वो अकेली - मधूलिका श्रीवास्तव भोपाल (म.प्र.)


 

 कहानी 

       वो अकेली

   “अरे काकी तुम जिद तो कर रही हो पर संभाल लोगी इनको... बड़े शैतान हो गए हैं।” नेहा ने अपनी काकी सास से कहा ।

   “अरे नहीं बहू तुम चिंता ना करो राहुल भी इतना ही शैतान था ।”

   “पर काकी  ये दो हैं और तुम्हारी उम्र भी तो अब हो गई है ।” नेहा ने समझाना चाहा । 

   “नहीं बहू ये कुछ दिन मेरे लिए स्वर्ग जैसे हो जाते हैं , तुम जरा चिंता ना करो ।” काकी ने लगभग हाथ जोड़ते हुए कहा ।

   “अरे नहीं नहीं ऐसा मत कहिए फिर आप ही उन्हें छोड़ने आना इस बार मैं कुछ नहीं सुनूंगी ।”

   “हाँ हाँ, मैं ही छोड़ने आ जाऊँगी, तेरे काका कभी चलने को राजी ही नहीं होते थे ।”

   “तो ठीक है काकी हम चलते हैं ।” राहुल और नेहा ने काकी के पैर छुए राहुल बच्चों से बोले 

    “देखो तुम लोग दादी को बिल्कुल तंग मत करना आठ बरस की नंदिता और दस बरस का निखिल दादी के पास अपने को कुछ आजाद समझ कर बहुत खुश थे। मम्मी पापा के जाते ही वे दादी के पास बैठकर अपने स्कूल के किस्से सुनाने लगे और खेल में मशगूल हो गए।  दोपहर का भोजन कर दादी ने दोनों को सुला दिया और खुद भी लेट गईं । आज उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था ! उन्हें लगा था कि इस बार राहुल बच्चों को उनके पास नहीं छोड़ेगा उसके काका के नहीं रहने पर वह सोचता होगा ,पता नहीं वे संभाल सकेगी या नहीं पर भगवान का शुक्र है कि मान गया ।  राहुल बड़ा अफसर बन गया है, उनका कोखजाया तो नहीं है पर उसे पाला पोसा और पढ़ाई लिखाई का खर्चा उन्होंने और काका ने ही उठाया था ।जेठ जेठानी के सड़क हादसे में मौत हो जाने पर काकी ने ही उसे संभाला । राहुल यह एहसान नहीं भूला ,अपना पूरा फर्ज निभाता है हर साल बच्चों को लेकर आता है दो-एक साल से तो बच्चों की छुट्टियों में उनके पास छोड़ भी जाता है । बहू भी बड़ी सयानी है । उन्होंने सोचा कितने प्यार से कह गई है काकी  तुम्हें ही पहुंचाना होगा । इस बार तो वह जरूर जाएंगी , कुछ दिन उसके पास रहेंगी फिर अपनी बहन के पास , हमेशा बुलाती रही है , पर ये कभी राजी ही नहीं होते थे , कहते कहीं बाहर जाना है तो चलो .. मैं घुमा लाता हूँ , कह कर धीरे-धीरे पूरे तीरथ करा दिए , पर किसी के घर ना ले गए । अब तो कोई पूछ गछ रही नहीं ।कुछ दिन बहन के पास , उसके बाद ननद की बेटी के पास रह लेंगी ! बेचारी ननद तो अब रही नहीं पर उसकी बिटिया माधवी को , उन्होंने बचपन से ही बहुत खिलाया है  , उसके पास भी कुछ दिन आराम से रह लेंगी । पेटजाए  नहीं है तो क्या हुआ इतने लोग तो है ! जिनके पास जाया जा सकता है ।सोचते-सोचते उनकी आँख लग गई ।

      बच्चों के रहने से खूब रौनक रही अब वे बड़े हो रहे हैं तो ऊधम भी ज्यादा करने लगे हैं ।  हालांकि खेल खेल में दो बल्ब और खिड़की का शीशा भी टूटा , दो तीन डेकोरेशन पीस भी टूटे , वह सहन करती रहीं पर मन में कष्ट भी हुआ पति कितने प्यार से लाए  थे  पर बच्चों की खुशी उनकी खिलखिलाहट उनका रूठना मचलना , उनका जी जुड़ा जाता। 

         समय पंख लगा के उड़ गया , बच्चों को पहुंचाने का समय आ गया । मोहल्ले पड़ोस की औरतें जुट गई .. ‘काकी कब आओगी ?’ किसी ने पूछा -  ‘जल्दी आ जाना तुम्हारे बिना हम क्या करेंगे ।’ चंपा उछल कर बोली ‘दादी मेरी शादी में जरूर आ जाना ।’ वह हंसकर बोलीं ‘तुम लोग मुझे जाने दोगी तब ना आऊंगी ... दो चार महीने तो लग ही जाएंगे राहुल क्या यूं ही आने देगा ?’  यशोदा जीजी और बिटिया कहती रहीं  पर तुम्हारे काका कभी चलते ही नहीं थे , अब जाऊंगी तो जब तक सबका जी नहीं भर जाएगा तब तक नहीं  आऊंगी ।

    बच्चों को लेकर पहुंची तो राहुल और नेहा बहुत  खुश हुए ! अपने बिछड़े बच्चों से मिलकर या उनसे ! पर काकी  राहुल का इतना बड़ा बंगला , नौकर चाकर और ठाट बाट  देखकर खुश हो गईं । बहू ने झट पैर छुए और एक अच्छे हवादार कमरे में ले गई और पलंग पर बिठाती  हुई बोली 

     “काकी बड़ा अच्छा किया जो आ गईं , इस बार ऐसे ही न जाने दूंगी, मैं  तुम्हें जल्दी जाने न दूँगी ।मुझे भी कुछ सेवा का मौका मिले ।” 

    “काकी अम्मा यह तुम्हारा ही घर है हफ्ता दस दिन महीना  जितना जी चाहे रहना ।” राहुल ने बगल में बैठते हुए उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया और सहलाने लगा ।

     काकी के दिल में हफ्ता दस दिन कहीं धसक गया पर  उन्होंने उसे धंसा ही रहने दिया , निकालतीं तो शायद  टीस उठती । दस बारह दिन खुशी खुशी निकल गए सब कुछ बढ़िया था ।राहुल और नेहा खूब जी जान से उनकी सेवा में लगे थे ।

    एक दिन राहुल उनके पास बैठ गया 

    “और काकी अम्मा कैसी हो ? कोई शिकायत तो नहीं है बहू सेवा तो कर रही है ना ...?”

    “अरे मेरे भाग में इतना सुख लिखा है तेरे काका होते तो बताती ।” कह कर राहुल को असीसने लगीं ।

   “काकी अम्मा इस इतवार बॉस को खाने पर बुलाया है , साथ में दो-चार मिलने जुलने वाले दोस्त भी रहेंगे ।” 

    “अच्छा तो दावत है तुम बताओ हम क्या बना दें, दही बड़ा ,खीर जो कहोगे , कचौड़ी भी बना लेते हैं पर अब जरा हाथ काँपता है।”

    “अरे नहीं नहीं... अब इन चीजों का रिवाज नहीं रहा , अब तो मुर्गा मटन चलता है , व्हिस्की के साथ कबाब कटलेट चलते हैं यह दही बड़ा ,कचोरी ,खीर सब पुरानी बातें हो गई हैं ।”

    “हाय राम ... बामन होकर मटन मुर्गा खाते हो ... “काकी आश्चर्य से बोलीं ।   

   “अरे काकी अम्मा वो जमाने लद गए अब तो यही चलता है ।”  कह कर वह हंसने लगा ! साथ ही बहू भी हंस पड़ी।

    “फिर बेटा हम क्या करें हम तो ना रह पाएंगे... तुम्हारा  मटन मुर्गा का चौका अलग तो है ना ...”

   “अरे अम्मा यह शहर है यहाँ चौका तो सब एक ही होता है। वह तो तुम आई थीं  इसीलिए इतने दिनों से सब कुछ बंद कर रखा था , पर दावत तो इसके बगैर नहीं हो सकती ना ... “ इस बार बहू बोली। 

   काकी भौंचक्की सी दोनों का मुँह देखने लगीं 

    “ठीक है बेटा जहाँ जैसा चलन हो वही अपनाना पड़ता है ।”  कहकर वे चुप हो गईं, उस रात उनसे खाना नहीं खाया गया जैसे उनका तो धर्म ही भ्रष्ट हो गया । वह बेचैनी से टहलती रहीं, कभी बैठ जातीं ,कभी लेट जातीं। अगली सुबह वे बाहर आईं और बोलीं

    “बेटा तुम तो हमारा टिकट मौसी के यहाँ का करा दो! तुम्हारी दावत में हम क्या अच्छे लगेंगे ?”

    “ क्यों काकी अम्मा तुम को सबसे मिलवाएंगे कि तुम हमारी अम्मा हो तुम्हारी वजह से ही तो आज हम अफसर बने हैं ।”

    “नहीं बेटा हम को जाने दो ... दो-चार महीना में फिर आ जाएंगे ।”

    “अरे काकी आप चिंता ना करो आपके लिए खाना अलग से बनवा देंगे एक ही दिन की बात तो है , फल फ्रूट मंगा लेंगे ।‌ समय के साथ बदलना पड़ता है ।” बहू बोली ।

     “हमें तो वैसे ही तुम्हारी मौसिया सास के यहाँ जाना था , कल जाते आज चले जाएंगे।”

    “ठीक है काकी अम्मा... शाम की गाड़ी में बिठा देते हैं , सुबह उतर जाना, मौसी को फोन लगा देता हूँ।”

     काकी का दिल भर आया , सोचने लगीं थोड़ा सा इसरार और कर लेता तो क्या चला जाता , अभी तो दस बारह  दिन ही हुए हैं । उन्हें लगा जैसे वे लोग जान छुड़ाना चाहते हैं । चलते समय बहू ने साड़ी दी और खाने का डब्बा दिया और पैर छूते हुए बोली        “काकी दो-चार दिन और रुक जातीं ।”

       “अगली बार आएँगे तब रुक जाएँगें। काकी ने अपने दिल पर रखा पत्थर ठीक से जमाया । गाड़ी के चलते ही दिल का पत्थर हिल गया और वे हिलक हिलक कर  रोने लगी । मन कसैला हो गया । रात होने लगी थी । उन्होंने खाने का डिब्बा खोला ।चार पांच पूरी और अचार रखा था , पानी तो देना ही भूल गई थी बहु रानी । तभी ख्याल आया कि जब वे दोनों को विदा करती थीं तो पूरी के साथ करेले की सब्जी आलू की सब्जी और कुछ मीठा, मठरी और चिवड़ा ... कितना कुछ रखती थीं । उन्होंने अपना सर झटका और अपनी बहन के बारे में सोचने लगीं  उनके दुख दर्द को समझने वाली ,उनकी प्यारी बहन, कितना खुश होगी उसे अचानक देखकर, जरूर स्टेशन पर किसी को भेज दिया होगा... खूब बातें करेंगे कुछ अपनी कहेंगे कुछ उसकी सुनेंगे... कितना अच्छा लगेगा ,मन का सब मलाल  मिट जाएगा ।खूब दिलजोई  होगी... सोचते-सोचते उनकी आँख लग गई ।स्टेशन पर तो कोई लेने नहीं आया था... इंतजार करती रहीं। फिर रिक्शा कर लिया। घंटी बजाई दरवाजा खुला ,उन्हें देख बहन हैरान रह गई 

     “तुम...तुम जमना  तुम कहाँ से आ रही हो ?”

     “क्यों क्या कल राहुल ने तुम्हें फोन नहीं किया था ?”

     “नहीं तो ... अरे  हाँ हाँ ... शाम को फोन आया तो था पर मैं भूल ही गई।”  

        काकी का दिल एक बार फिर दरक गया मन भी खिंच गया ।

     “चल अंदर चल ... बड़ी थकी लग रही है चेहरा भी कैसा उतरा हुआ है... जल्दी से नहा धो ले । चाय बनाती हूँ... “ कह कर उसे कमरे में छोड़ कर चली गई  ।वह ठगी सी खड़ी रह गईं ।

     नहा धोकर निकली और बाहर आईं घर में बिल्कुल सन्नाटा था।

   “जीजी सब लोग कहीं बाहर गए हैं क्या ?

      चाय का कप पकड़ाते हुए यशोदा बोली         “निकिता ससुराल में है और नकुल... “ कहते कहते चुप हो गई ।

    “ क्या हुआ नकुल को ? “ काकी ने पूछा।

    “होना क्या है इसी शहर में अलग मकान लेकर बहू के साथ अलग हो गया है , अब तुमसे क्या छुपाना ! चल तू आराम कर ! तेरे जीजा आते होंगे, आजकल बड़े चिड़चिड़े हो गए हैं , तू सामने मत पड़ना ।”  कहकर वे दरवाजा भेड़ कर चली गई । काकी हतप्रभ रह गई क्या सोच कर आई थी और क्या हो रहा है उसके साथ, जीजा से छिपकर कितने दिन रह पाएंगी इस घर में । तभी नौकर आया खाना परोस गया । खाना खाकर कर वे लेट गईं । बड़ी असमंजस की स्थिति थी, दीदी फिर आई ही नहीं वह रास्ता  देखती रहीं, सफर की थकान थी तो नींद लग गई , उठी तो शाम घिर आई थी वह बाहर आईं तो बैठक में खूब हो-हल्ला मचा था । वह सीधे रसोई में गईं , देखा दीदी खाना बना रही हैं ।

   “क्या हुआ दीदी मैं कुछ मदद करूँ, मेहमान आए हैं क्या ?”

   “अरे छुटकी तू बाहर क्यों आई , तेरे  जीजा देखेंगे तो चिढ़ जाएँगें। जा तू जा ... आराम कर, मैं कल बात करती हूँ । तू कमरे से मत निकलना ।”

    कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ है ? अगले दिन भी कमरे में ही उसे चाय नाश्ता दिया गया । वह हैरान थी कि दोपहर में  खाने की थाली लेकर जीजी  कमरे में आईं । काकी बहुत उदास थीं । 

    “मैं कल अपनी ननद की बेटी के यहाँ चली जाऊँगी ,इसी शहर में रहती है।” काकी ने कहा।

    “हाँ , यह ठीक रहेगा कल क्यों तुम आज ही चली जाओ  मैं गाड़ी मंगा देती हूँ।”

     काकी रोने लगी 

    “क्या बात है जीजी.. मैं तो महीना दो महीना रहने के लिए आई थी , तुम तो जानती हो मेरा तो अब इस दुनिया में कोई नहीं है। सोचा था कुछ दिन तुम्हारे पास रह कर अपना अकेलापन बाँटूँगी।”

  अचानक जीजी भी रोने लगीं 

   “मैं सब जानती हूँ पर मेरे हालात तो तुझसे भी बद्तर हैं । मैं तो तुझसे भी ज्यादा अकेली हूँ ।”

   “क्या मतलब ... मैं कुछ समझी नहीं ।” काकी परेशान हो गयी ।

    “क्या कहूँ तुझसे , जब से बाबू जी की वसीयत खुली है और सब जमीन जायदाद  भाई के नाम  देख कर वे बहुत नाराज हैं, कहते हैं मायके से संबंध रखा तो तलाक दे दूँगा । कुछ दिन पहले गंगा जीजी आई थी तब इन्होंने  इतना हंगामा किया , उसे तो घर में पांव भी ना रखने दिया । हम दोनों बहुत रोए , मुझे भी धक्का देकर घर से बाहर कर दिया ।अब तुम ही बताओ इस उमर में , मैं कहाँ जाऊँगी ?” जीजी फूट-फूट कर रोने लगीं। ‘तू जा जमना तू जा .… ‘कह कर वे कमरे से बाहर चली गई । 

      काकी ने अपना सामान बांधा जिसे उन्होंने ठीक से खोला भी नहीं था, उसे उठाया और जीजी के घर से बाहर निकल गईं और माधवी के घर के लिए रिक्शा कर लिया । माधवी का पता उन्हें याद था , किसी बड़ी कंपनी में काम करती है और अकेली रहती है ।सोचने लगीं अकेली घर दफ्तर करती होगी ,पता नहीं ठीक से खाती पीती भी होगी कि नहीं । खूब ध्यान रखेंगी उसका ,जाते ही चौका संभाल लेंगी । 

     घंटी बजाई ! दरवाजे पर काकी को देख माधवी एकदम चौंक गयी   

     “अरे मामी आप ! आप यहाँ ... कोई  खबर नहीं अचानक ... सब ठीक तो है?”

   “अरे अंदर  तो आने दे , क्या सब कुछ दरवाजे पर ही पूछ लेगी ।” काकी हंस कर बोलीं ।

   “अरे आइए आइए , अंदर आइए ... मैं चाय बनाती हूँ , आप हाथ मुंह धो लो ।” काकी ने ठंडी सांस भरी उन्हें लगा कुछ दिन आराम से कट जाएंगे , साफ सुथरा छोटा सा घर था ।चकाचक बाथरूम देख दिल खुश हो गया ।

 माधवी तब तक चाय बना लाई , साथ में बिस्किट भी थे । काकी संकोच से गड़ गईं ,परेशानी में खाली हाथ चली आईं , कुछ मिठाई ही ले आतीं । 

     “हाँ तो अब बताइए कैसे आना हुआ , अचानक.. सब ठीक तो है।”

   “अरे बिटिया तुझसे मिलने का जी चाह रहा था तो चली आई। अब वहाँ तो कोई है नहीं जो आगा पीछा देखती , सोचा तू भी अकेली है तेरे साथ ही रह लूँगी। माधवी का चेहरा उतर गया वह कुछ बोली नहीं ।

    “अच्छा मामी आप आराम करो मैं खाना देखती हूँ , मैं तो शाम को काफी ही लेती हूँ , दिन का तो ऑफिस में ही हो जाता है ।

   “अरे तू परेशान ना हो मैं खुद बना लूंगी ।”

   “कुछ होगा तब ना बनाओगी , मैं बाहर से आर्डर कर देती हूँ ।” कहकर वह बालकनी में निकल गई और फोन पर बातें करने लगी।

   काकी सवेरे जल्दी उठ गईं , फ्रिज में कुछ खास नहीं था उन्होंने चाय बनाई और बिस्किट खा लिए । माधुरी तैयार हो रही थी उन्होंने उसके लिए दूध गर्म कर दिया और ब्रैड सेंक दी । वह तैयार होकर बाहर आई ।

   “मामी मुझे तो ऑफिस जाना है मैं चौकीदार को भेज दूँगी , आप उसे लिस्ट दे देना वह सामान ला देगा ।मैं तो सात बजे तक ही आ पाऊंगी।” कह  कर वह जाने लगी ।

  “अरे यह दूध तो पीती जा ...”

   “अरे मामी नाश्ता तो मैं ऑफिस में ही करती हूँ .. अच्छा लाओ दूध पी लेती हूँ आपने गर्म कर दिया है ।” कह कर वह निकल गई ।

     सारा दिन घर भायें भायें  करता रहा , चौकीदार ने सामान ला दिया उन्होंने खूब रच बस कर खाना बनाया ।घर में सब कुछ सजा संवरा था कुछ काम दिख ही नहीं रहा था । वे हताश बैठी नहीं । सात बजे के करीब माधवी आई बहुत थकी हुई थी आते ही कमरा बंद कर लेट गई । काकी कुछ कहना चाह कर भी, बोल ना सकी , वे ऊंघने लगीं ।

  “और मामी क्या किया दिन में , लगता है बढ़िया खाना बनाया है , चलिए खुशबू से मेरी तो भूख ही बढ़ गई ।” काकी एकदम खुश हो गईं । आज सब तेरी पसंद का ही बनाया है । चार पांच दिन ऐसे ही निकल गए । एक दिन आफिस से आने के बाद  माधवी कहने लगी।

  “मामी मुझे ऑफिस के काम से शहर के बाहर जाना है , सात आठ दिन के लिए ! आपका टिकट बनवा दूँ … “

    काकी पर वज्रपात हुआ वे उसका मुँह देखने लगीं।

   “क्या हुआ मामी ? मुझे तो ऑफिस के काम से अक्सर बाहर जाना पड़ता है ।”

  “तो ठीक है ना तू लौट के आ जाना ... मैं रही आऊँगी ।”

   “अरे नहीं मामी तुम अकेली नहीं रह सकोगी और मुझे पता नहीं कितने दिन लग जाएं आपका सुबह का टिकट करा देती हूँ।”

    “ठीक है बिटिया फिर मेरा हरिद्वार का टिकट बनवा दे ।” काकी ने हताश होकर कहा ।

     माधवी ने उन्हें सुबह की गाड़ी में बिठा दिया । गाड़ी छूटते ही एक बार  फिर  वे हिलक हिलक कर रोने लगीं ।

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मधूलिका श्रीवास्तव 

भोपाल (म.प्र.)

मो. 9425007686

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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