काव्य :
बदनाम न करो...
एक समय था युगधर्म त्रेता का
सत्य धर्म और न्याय का काल;
दैहिक दैविक भौतिक न कष्ट
नहीं पड़ता था दुर्भीक्ष अकाल।
माता कैकेई मुख सुन आदेश
पितृ धर्मार्थ राम गये वनवास;
कृतज्ञ भाव कर धन्यता बोध
अव्यक्त दुख पीड़ा अवसाद।
रह विरक्त वल्कल वस्त्रावृत
सिर चरण पादुका धार्य किये;
रख राजसिंहासन पर खड़ाऊं
अग्रज के निमित्त राज्य किये।
नन्दी ग्राम जा बैठे बन नन्दी
किये भ्रात प्रतीक्षा चौदह वर्ष;
राजसुख त्यागे अनुज भरत ने
किये प्रायश्चित तपश्चर्य अमर्ष।
वह सत् युग था,यह कलयुग है
अब न रहे पुत्र राम,भ्रात भरत;
अन्याय अधर्म की कुर्सी बैठे हैं
नाटक खेल रहे अपात्र कूटक।
करो न अपवित्र नाम राम का
करो न तुलना पाखंड फरेब से;
ठग मक्कार लूटेरे जग जाहिर
करते चोरी जनता की जेब से।
-अंजनी कुमार'सुधाकर' ,बिलासपुर
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