प्रसंगवश ♦️
आस्था से खिलवाड़ धर्म स्थलों तक
- डॉ घनश्याम बटवाल , मन्दसौर
देश में धर्म सबसे ऊपर चढ़कर बोल रहा है । हाल के सम्पन्न लोकसभा चुनाव में तो यह सारे एजेंडे को धकेलकर आश्वस्ति भर रहा था । कोई भी दल और दलबदल इसके सहारे सत्तारूढ़ होना चाह रहा था ।
क्यों न हो , प्राचीन काल से वर्तमान तक हमारे देश में धर्म प्रधानता रही , धर्म आधारित क्रिया कर्म , राजपाट , और परस्पर दैनंदिन व्यवहार रहा है ।
धर्म का जनमानस के अंतस गहरा प्रभाव रहा है । सभी धर्म में भिन्न।भिन्न स्तरों की आस्था देखने में आई है । जब धर्म सर्वोपरि माना जाय तो इसके माध्यम से दोहन - शोषण और प्रलोभन भी कहां कम है । लंबे अरसे से आस्था - श्रद्धा और विश्वास के चलते ठगाए जाते रहे हैं लोग ।
ओर यह कमोबेश हर धर्म में होरहा है । कहीं कम तो कहीं ज्यादा ।
यह जानते और मानते हुए भी जनसामान्य " धर्म भीरूता " का शिकार हुआ है , ओर होरहा है ।
कोई भी धर्म बुराई नहीं सिखाता पर हम हैं कि चाहे - अनचाहे बुराई के मार्ग पर अग्रसर हैं । धर्म ने यह भी बताया कि बुराई का मार्ग दुखांत का पथ है फिर भी छोड़ नहीं रहे बल्कि ओढ़ रहे हैं हम । कथित स्वकल्याण से दूसरों को पतित करते हुए ख़ुश होरहे हैं । बात यूं उठी है कि विश्व के सर्वाधिक बड़े और चर्चित दक्षिण प्रान्त के तिरुपति देवस्थानम में प्रसाद के लड्डुओं में अमानक पदार्थों का मिश्रण मिला है , जांच आधार पर यह शिकायत राज्य के मुख्यमंत्री ने स्वयं सार्वजनिक की है । हैरान करने वाली ख़बर से समूचे धर्म अध्यात्म सनातन क्षेत्रों में खलबली मची है ।
जब मुख्यमंत्री ने बयान दिया तो राजनीति गर्मा गई है । मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया और सोमवार को ही कथित मिलावट की रिपोर्ट पर सरकार को ही तलब किया । सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब मंदिर प्रसादम की रिपोर्ट मिलने के बाद एसआईटी गठित कर दी गई तो मुख्यमंत्री को सार्वजनिक बयान क्यों देना चाहिए ?
सुप्रीम कोर्ट ने तो यह भी कहा है कि देवताओं और भगवान को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए । अब आगे क्या होता है देखने वाली बात है ।
राजनीति है तो आरोप - प्रत्यारोपण का सिलसिला भी एक पखवाड़े से देश भर में चल रहा । अब केंद्र हो या राज्य जांच कराने एस आई टी गठन , सामग्री प्रदाता टेंडर निरस्त आदि प्रक्रिया अपनाने की बात कर रहे हैं , सवाल यह कि प्रचलित व्यवस्था में अबतक यह क्यों नहीं हुआ ? जब दशकों से तिरुपति मंदिर प्रसाद लड्डू वितरण होरहा है तो घटना के पहले परीक्षण क्यों नहीं हुआ ? यह सरासर धर्म आस्था से खिलवाड़ है । अगर प्रसाद भोग में मिलावट है तो लाखों - करोड़ों श्रद्धालुओं का धर्मभ्रष्ट कर पतित करने का दोषी कौन ?
चर्चा में देश के एक बड़े मंदिर में भले ही राजनीतिक कारणों से प्रसाद में मिलावट का भांडा फूटा हो। हमारे देश भारत में मिलावट और भ्रष्टाचार कोई नई प्रवृत्तियां नहीं हैं। खाद्य पदार्थ ही नहीं, हमारी हवा और पानी में भी मिलावट हैं। खाने की चीजों में इनसान की उंगली, छिपकली, सांप के टुकड़े पाए जाने की असंख्य घटनाएं सामने आती रही हैं। कानून तो है, लेकिन खाद्य निरीक्षकों की निगरानी और व्यवस्था गायब और लचर है। उनके अपने ‘हफ्ते’ या ‘महीना’ बंधे हैं। दूध में पानी या सोडा मिलाया जाता है, खोया भी मिलावटी और रासायनिक है, देशी घी के नाम पर हम ‘बाबाओं’ के दावों का अनुसरण करते हैं, लिहाजा भ्रम में जीते हैं कि हम विशुद्ध देशी घी खा रहे हैं। यह मामला नया नहीं है , प्रतिदिन ऐसे छोटे बड़े प्रकरण सामने आते हैं और विभिन्न स्तरों पर " निपटाए " जाते हैं ।
वैसे अब कुछ भी शुद्ध मिलना असंभव है, क्योंकि यह मोटे मुनाफे और मिलावट का ‘कलियुग’ है। आत्मा से हम बेईमान और भ्रष्ट हैं। मुनाफे और मिलावट के लिए कोई भी ठेकेदार भगवान तक को ठग सकता है। आस्था और श्रद्धा को खंडित और अपमानित कर सकते हैं। बेशक मंत्रोच्चारण के जरिए तिरुपति मंदिर का शुद्धिकरण कर लिया गया हो, यह कर्मकांड का आत्मसंतोष हो सकता है, लेकिन करोड़ों भक्तों ने ‘प्रसादम् लड्डू’ का जो ग्रहण किया है, प्रसाद को अन्य भक्तों में भी बांटा है, उनका शुद्धिकरण कैसे संभव है? तिरुपति मंदिर में औसतन 3.5 लाख लड्डू रोजाना भक्तों के हाथों में जाते हैं। प्रसाद के इन लड्डुओं से तिरुपति मंदिर को 500-600 करोड़ रुपए की सालाना कमाई होती है। प्रसाद, मंदिर और कमाई…बिल्कुल विरोधाभासी हैं। देश में हिंदू या गैर-हिंदुओं के हजारों मंदिर ऐसी ही ‘दुकानदारी’ चला रहे हैं। दुकान खोलोगे, तो मिलावटी वस्तुएं भी आएंगी और उन्हें विक्रेता का धर्म निभाना पड़ेगा!
अब तिरुपति प्रकरण के बाद मथुरा, वृंदावन, गोवर्धन के भगवान श्रीकृष्ण के मंदिरों में भी जांच का मुद्दा उठाया गया है। वाराणसी के काशी-विश्वनाथ मंदिर में बंटने वाले प्रसाद की भी जांच की जाएगी। किसी मंदिर के बाहर नोटिस चिपकाया गया है कि भक्तगण अपने घरों से प्रसाद बनाकर लाएं और मंदिर में भगवान को भोग लगाएं। अथवा ड्राई फ्रूट्स प्रभु के चरणों में चढ़ाए जा सकते हैं। दरअसल बुनियादी मुद्दा और संकट मिलावट और बदनीयति का है।
आखिर भक्तगण विशुद्ध दूध और घी कहां से लाएंगे? लिहाजा घर में बना प्रसाद भी ‘अशुद्ध’ और मिलावटी हो सकता है। यही नहीं, स्कूलों में बच्चों को जो ‘दोपहर का खाना’ दिया जाता है, वह भी मिलावटी, प्रदूषित होता रहा है, क्योंकि बच्चे वह खाना खाकर बीमार पड़ते रहे हैं। मौतें भी हुई हैं। उस खाने में भी छिपकली और सांप पाए जाते रहे हैं। यह कैसी व्यवस्था है? देश में पूजा-स्थलों और मंदिरों में लोगों की गहरी आस्था और विश्वास होता है। मंदिर के जरिए आम भक्त भगवान से साक्षात्कार महसूस करना चाहता है।
आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के आरोपों के जरिए यह मुद्दा बेपर्दा हुआ है। पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी को ‘खलनायक’ करार दिया जा रहा है। बेशक राज्य सरकार ने सभी पुराने ठेके, सप्लाई आदि को रद्द कर दिया है। विशेष जांच दल भी गठित कर दिया गया है, लेकिन अंतत: यह सियासी खुन्नस का मामला भी साबित हो सकता है। इस मुद्दे पर सियासत शुरू हो चुकी है, जबकि बुनियादी मुद्दा मंदिरों में जाने वाले भक्त की आस्था और मिलावट के जरिए उसकी आत्मा को अपवित्र करने की हरकतों का है। अभी लड्डू प्रसादम् की वैज्ञानिक जांच सामने आनी है।
देश की सबसे बड़ी और सार्थक प्रयोगशाला हैदराबाद में है, जबकि पूरी चिल्ल-पौं की आधार गुजरात की लैब की रपट है। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने बहुराष्ट्रीय अध्ययन के संदर्भ में भारत के 17 शहरों से भी कुछ नमूने लिए।निष्कर्ष यह रहा कि 14 प्रतिशत नमूनों में उच्च स्तर की धातु मिलाई गई थी। बेशक दूध के क्षेत्र में सहकारिता आंदोलन ने विकास की बुलंदियां छुई हैं, लेकिन आधा से ज्यादा क्षेत्र अब भी असंगठित है। इसमें घी बनाने वाली इकाइयां भी हैं। संसद को यह बताया गया था कि 3 में से 2 भारतीय जो दूध का उपयोग करते हैं, उसमें डिटर्जेंट, कास्टिक सोडा, यूरिया अथवा पेंट आदि मिले होते हैं। इतने व्यापक स्तर पर मिलावट को किस तरह नियंत्रित किया जा सकता है। लड्डू प्रकरण के बाद जो भी जांच के दौर निभाए जाएं, लेकिन यही हमारी नियति रहेगी कि मिलावट ही ‘अंतिम सत्य’ है। आज खाने-पीने की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें गारंटी के साथ कहा जा सके कि इसमें मिलावट नहीं है। मिलावटखोरी का यह धंधा बरसों से पूरे देश में चल रहा है। इसके खिलाफ कड़े से कड़े कानून बनाए गए हैं, लेकिन मिलावट का धंधा रुकने का नाम नहीं लेता। कई राज्य अपने स्तर पर मिलावटखोरों के खिलाफ कार्रवाई करते हैं, लेकिन सबूतों के अभाव में मिलावटखोर साफ बच जाते हैं। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे दैनिक उपयोग में आने वाली खाद्य वस्तुओं पर निगरानी रखें तथा रोज दंडात्मक कार्रवाई करें।
मजे की बात यह है कि खाद्यान्न की जाँच पड़ताल के लिये राज्यों और केंद्र द्वारा पर्याप्त महकमे की भारी कमी है । त्यौहार सीज़न में प्रतीकात्मक रूप से नमूने लिए जाते हैं उनकी रिपोर्ट ही महीनों बाद आती है , ओर वह क्या रिपोर्ट होती है यह भी छिपा हुआ नहीं है । निष्कर्ष तो यही है कि मिलावटी दौर पुरजोर है , हर स्तर पर और हर क्षेत्र में तब भगवान और हम अछूते कैसे रहेंगे ?
अब तिरुपति प्रसाद मामले में कोई अपवाद स्वरूप नजीर मिले और मिलावट पर अंकुश लगे इसकी प्रतीक्षा रहेगी । पर जब हमारे ज़ेहन में सिर्फ़ अर्थ ही प्रधान हो तब भगवान , धर्म और सरकारें क्या कर सकेगी ?