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राम की शक्ति पूजा: अशुभ पर शुभ की विजय - आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रका, नर्मदापुरमर


 राम की शक्ति पूजा: अशुभ पर शुभ की विजय 

-  आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

      अपने समय और समाज के सशक्त कवि महाप्राण पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला’ की महाकाव्यात्मक कृति राम की शक्ति पूजा पढ़ने का अवसर मिला, यह अलग बात थी की छात्र जीवन में उनकी कविता वह तोड़ती पत्थर, जिसे देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर, रटने के बाद इस पर परीक्षा में आने वाले प्रश्नों ने परेशान किया था किन्तु एक मजदूरी करने वाली गरीब महिला ओर उसके दूधमुहे बच्चे के यथार्थ चित्रण ने मन को झकजोर दिया था। वर्षों बाद निराला जी की राम की शक्ति पूजा पढ़ी जिस पर लिखने का मन हुआ। देखा जाये तो निराला जी का बचपन ओर युवावस्था बंगाल में बीतने के दरम्यान शक्ति के रूप में दुर्गा पूजा का उन पर गहरा असर रहा था। उस समय शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार भारत देश के राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों और आम जनता पर कड़े प्रहार कर रही थी। ऐसे में निराला ने जहां अपनी इस कविता का आधार बना कर उस निराश हताश जनता में नई चेतना पैदा करने का प्रयास किया और अपनी युगीन परिस्थितियों से लड़ने का साहस भी दिया। सत्य और असत्य का संघर्ष उतना ही पुरातन है जितनी प्राचीन है हमारी संस्कृति और सभ्यता। इसके साथ ही असत्य पर सत्य की विजय का इतिहास भी उतना ही पुरातन है। सत्यमेव जयते हमारी संस्कृति का उद्घोष और मूल मंत्र है इसे निराला जी ने भावपूर्ण शब्दों से अभिव्यक्त कर दशहरा ओर दीपावली को असत्य पर सत्य की विजय का पर्व की सजीवता का वर्णन किया है।

      श्री निराला जी ने राम की शक्ति पूजा के माध्यम से शुभ और अशुभ, सत और असत शक्तियों के बीच चलने वाले शाश्वत संघर्ष को राम और रावण के युद्ध के जरिए यह कविता सीता को केन्द्र बिन्दु मानकर अभिव्यक्त की है। राम शुभ और सत्य के प्रतीक है तथा रावण अशुभ असत्य का उदाहरण है। कृत्तिवासी रामायण के प्रसंग विशेष को लेकर लिखी गई इस रचना में निराला जी ने अपने समय और समाज की चुनौतियों का साहसपूर्वक उत्तर दिया है। सभी दृष्टियों से परिपूर्ण इस कविता में राम के लगभग संपूर्ण जीवन की झांकी दिखाई देती है। किन्तु निराला के राम तुलसी के राम से भिन्न हैं। ढलते हुए सूर्य के साथ राम और रावण शुभ और अशुभ के अपराजेय समर से रचना प्रारंभ होती हैं। घमासान युद्ध होता है। शाम को दोनों पक्षों की सेनाएं अपने-अपने शिविरों में लौट जाती हैं। इस युद्ध में राक्षसी शक्तियों का उत्साह बढ़ता है और वानर सेना का मुख मंडल म्लान हो जाता है। राम निराशा में डूब जाते है और रावण ठहाके लगाता हैं। राम की गहन उदासी को देखकर ऐसा लगता है जैसे दुर्गम पर्वत पर रात का घना अंधेरा उतर आया हो किन्तु इस निविड़ अंधकार में कहीं एक किरण आशा की भी विद्यमान हैः

      है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार,

      खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार

      अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल

      भूधर ज्यों ध्यान- मग्नः केवल जलती मशाल।

      ऐसे में राम की स्थिति किकर्तव्यविमूढ सी हो जाती  है। उल्लेखनीय है कि निरालाजी का व्यक्तिगत जीवन भी तमाम उथल-पुथलों से भरा था। भीषण झंझावातों में भी वह राम की ही भांति आशा के दामन को नहीं छोड़ते और अंत तक अपने समय और समाज से जूझते रहते हैं। दृढ़ राम को इस बात का संशय बार-बार विचलित करता है कि कहीं रावण की विजय न हो जाए, अशुभ और असत जीत न जाए? इस कारण उनका मन दूसरे दिन की लड़ाई के लिए स्वयं को असमर्थ पाता है। निराशा के इन क्षणों में अच्युत राम के मानस पटल पर कुमारी सीता की छवि उभर आती है। विदेह जनक के उपवन में लताओं की ओट से सीता के प्रथम मिलन की स्मृति कौंध जाने से उनका शरीर पुलकायमान हो उठता है। शिव-धनुष को तोड़ने के लिए एक बार पुनः उनके हाथ उठ जाते हैं। विश्व-विजय की भावना हृदय में भर जाती है। मंत्रों से शोधित उन्हें अपने वे सैंकड़ों दैवीय, पवित्र बाण याद आने लगते हैं जिनसे ताड़का, सुबाहु, खर दूषण जैसे विकट विकराल राक्षसों का संहार किया गया था। लेकिन इसके साथ ही आज के रण में संपूर्ण आकाश को आच्छादित किए कराल काली की भीमा मूर्ति राम के स्मृति पटल पर उभर आती है जिसके शरीर का स्पर्श पाते ही उनके अग्नि-बाण बुझ-बुझ कर क्षीण हो गए थे। ऐसी स्थिति में राम अपनी विजय के प्रति संशयग्रस्त हो उठते हैं। नेपथ्य में जैसे रावण का उन्हें दुष्टतापूर्ण अट्टाहास सुनाई पड़ता है, मानों वह कह रहा हो ‘कहो राम सीता की मुक्ति करा ली?’ इस प्रकार का स्मरण करते ही राम के भवपूर्ण नेत्रों से ऑसुओं की दो बूंदें टपककर चरणों पर गिर पड़ती है।

      राम के चरणों में राम-नाम का जाप करने में निरत हनुमान का इन अश्रु बिन्दुओं के कारण ध्यान भंग हो जाता है। ये राम के ऑसू है मन में ऐसा विचार आते ही अपारशक्ति के सागर हनुमान उद्वेलित हो उठते हैं और प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। उन्हें अखिल व्योम को ग्रसने को उद्धत देख शिव व्याकुल होकर गंभीर स्वर में श्यामा से कहते हैं- ‘देवी इस महावीर को रोको! ये सदैव ब्रह्मचर्य में रत रहते हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के ये अनन्य भक्त हैं। इन पर भूलकर भी प्रहार मत करना अन्यथा तुम्हारी भयानक पराजय सुनिश्चित हैं। इन्हें तो बस आप अपनी विद्या से समझा-बुझाकर ही शांत कर सकती हैं- और कोई रास्ता नहीं है। फलतः महाशक्ति अंजना माता का रूप धारण करती हैं और राम की दुहाई करती है और दुहाई देकर हनुमान को शांत करती है।

      निराला जी ने हनुमान प्रसंग को अपनी उदात्त और विशिष्ट शैली में शिद्दत से उकेरा है। हनुमान विकट से विकट परिस्थिति में भी कातर नहीं होते। रावण के प्रहारों से वानर सेना मूर्छित हो जाती है, स्वयं रघुनायक राम तक महाशक्ति की दृष्टि से बंध जाते हैं, केवल हनुमान को प्रबोध बना रहता है वे चेतना शून्य नहीं होते। तुलसी की उक्ति यहां निराला के हनुमान पर भी लागू होती हैं- राम से अधिक रामकर दासा। राम उदास बैठे हैं। उद्विग्न देख विभीषण उन्हें उनकीं शक्ति का स्मरण कराते हैं और उनका उत्साह बढ़ाते हुए कहते हैंः

      रघुवीर, तीर सब वही तूण में है रक्षित

      है वही वक्ष, रण-कुशल-हस्त-बल वही अमित

      हैं वही सुमित्रानंदन मेघनाद-जित-रण

      हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन

      तारा-कुमार भी वहीं महाबल श्वेत धीर

      अप्रतिभट वही एक-अर्बुद-सम महावीर

      हैं वही दक्ष सेना-नायक, हैं वही समर

      फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव-प्रहर?

      विभीषण रघुकुल गौरव श्री राम से आगे कहते हैं कि जब युद्ध अपने अंतिम चरण में पहुंच रहा हो तब उससे पीठ फेरना ठीक नहीं है। सीता जी से मिलन का समय जब आया है तब आप युद्ध से हाथ खींच रहे हैं। राम निर्दय मत बनो। इसके अलावा लम्पट, आचरणहीन रावण ने हित की बात बताने पर भी लात मारकर मेरा जो अपमान किया है उस बदले का क्या होगा? राम यह भी तो देखिए कि वह दृष्ट अशोक वाटिका में बैठी सीता को भी दुःख देगा और अपनी रणविजय की कहानी सभी सभासदों से कहता फिरेगा। और राम! आप मुझे लंका का स्वामी बनाना चाहते थे उसका क्या होगा- मैं तो बन गया लंकापति?

      मैं बना किंतु लंकापति, धिक्, राघव, धिक् धिक्।

      यहां निरालाजी की मनोवैज्ञानिक और लोकहृदय में पैठने की सूक्ष्म दृष्टि का लोहा मानना पड़ेगा। विभीषण राम से सर्वप्रथम जानकी के दुखों को बताता है फिर उनके उद्धार और पदुपरांत मिलन की बात कहता है। इसके बाद ही वह राम को रावण द्वारा किए गए अपने अपमान की याद दिलाता है और सब अंत में वह राम द्वारा अपने को लंकापति बनाए जाने वाली प्रतिज्ञा का स्मरण कराता है। लेकिन विभीषण के इन ओजपूर्ण शब्दों का राम पर कोई प्रभाव नहीं होता। कुछ क्षण मौन रहने के उपरांत राम कोमल वाणी किन्तु उदास मन से विभीषण को अपनी व्यथा बताते हैं, जिस कवि निराला जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है -

      मित्र वर, विजय होगी न समर,

      यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण

      उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण

      अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति।

      हमारे इस युग की भी यह एक विकट समस्या है। अन्याय पक्ष की ओर अपार शक्ति होती हैं जिसके बलबूते पर वह न्याय पक्ष को, जो प्रायः कमजोर और निर्बल होता है, उत्पीड़न करता है। पर न्याय पक्ष भी अपनी ओर सच्चाई को देखकर और सत्य का संबल पाकर हार नहीं मानता। राम की तरह निराला भी आजीवन अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करते रहे। तमाम कष्टों को झेलने के बावजूद वे उसके सामने झुके नहीं।

      राम विचित्र दैवीय विधान पर विचार करते हैं। वह इसे शक्ति का कौतुक मानते हैं। तभी तो देवी अधर्मी रावण की ओर से युद्ध के मैदान में उतरी हैः

      रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर

      यह रहा शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर।

      यदि शक्ति का यह खेल नहीं होता तो क्या प्रजापतियों के संयम से रक्षित राम के बाण आज के इस रण में श्रीहत होकर खंडित हो जाते? कदापि नहीं। भानुकुल भूषण राम के इस कथन को सुनकर वृद्ध जाम्बवान उन्हें विश्वस्त वाणी से परामर्श देते हुए कहते हैं कि रावण की तरह आप भी शक्ति का वरण करें, इसमें विचलित होने की क्या बात है? अशुद्ध रावण अगर भय पैदा कर सकता है तो क्या आप निष्पाप होकर भी सिद्धि प्राप्त करके उसे ध्वस्त नहीं कर सकते? निश्चय ही कर सकते हैं। अतः

      शक्ति की करो मौलिक कल्पना करो पूजन

     छोड़ दे समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन।

      इस दौरान महा वाहिनी के नायक लक्ष्मण रहेंगे और शेष महायोद्धा महत्वपूर्ण स्थलों पर मोर्चा संभालेंगे। जाम्बवान के इस सत्परामर्श को सुनकर संपूर्ण सभी हर्षित हो जाती है। इस उत्तम निश्चय के लिए श्री राम भल्लनाथ जाम्बवान को ससम्मान प्रणाम करते हैं। इसके उपरांत राम सिंहवाहिनी मॉ दुर्गा की शरण में जाते हैं। राम सिंह को स्वयं का प्रतीक मानते हैं और कल्पना करते हैं कि वह मुझसे कह रहा है कि ‘राम! तुम भी सिंह हो।’ अतः मैं राम सिंह के भाव से देवी का अभिनंदन करूँगा। भावस्थ राम मेघमंद्र स्वर में शक्ति की मौलिक कल्पना करते हैः

      देखो, बन्धुवर, सामने स्थित जो यह भूधर,

      शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुंदर,

     पार्वती कल्पना है इसकी, मकरन्द-बिन्दु,

      गरजता चरण-प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिंधु,

      दशादिक-समस्त है हस्त, और देखो ऊपर,

      अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,

      लख महाभाव-मंगल पदतल धॅस रहा गर्व

     मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।

      राम यहां दुर्गा को समस्त संसार में देखते हैं। प्रकृति में शक्ति पार्वती की कल्पना कवि की मौलिक देन है। आठ दिन तक बिना किसी विघ्न के अनुष्ठान चलता रहता हैं। नौंवे दिन, जो जप का अंतिम दिन था राम की परीक्षा लेने के लिए दुर्गा हॅस उठा ले गई पूजा का प्रिय इंदीवर। जप हेतु नीलकमल को न पाकर राम का स्थिर मन विचलित हो जाता है। वे ध्यान की भूमि से उतर कर देखते हैं तो नीलकमल गायब पाते हैं। इस स्थिति में आसन छोड़ने से साधना भंग होती हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में राम के दोनों नेत्रा सजल हो जाते हैं और वे भरे गले से फूट पड़ते हैंः

      धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,

      धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध।

     जानकी! हाय, उद्धार प्रिया का हो न सका।

      यानी जन्म के उपरांत ही ऋषि विश्वामित्रा उन्हें वन ले जाते हैं। इसके बाद चौदह वर्ष का वनवास मिलता है, सीता को रावण  हर कर ले जाता है सागर का विरोध सहना  पड़ता है। इस प्रकार राम को तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझना पड़ता है। राम कहते है कि मैं साधन ही खोजता रहा, मुझे साध्य की प्राप्ति न हो सकी। जानकी को मैं रावण से मुक्त न करा सका। लेकिन तुरंत ही राजीवलोचन राम मन के दुर्बल पक्ष पर विजय प्राप्त कर तीक्ष्णबाण से अपने कमल-नयन को बेधकर अनुष्ठान पूर्णाहुति  के लिए दृढ़ निश्चय कर लेते हैं। राम को ऐसा विकट कार्य करने के लिए सन्नद्ध जान ब्रह्यंड कंपित हो उठता है। तुरंत देवी प्रकट होकर परम धैर्यवान राम के बाण वाले हाथ को थाम लेती है और उन्हें उनके दृढ़ निश्चय के लिंए साधुवाद देती है। आज राम अपनी मौलिक कल्पना के अनुरूप देवी का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते हैं।

      देखा राम ने सामने श्री दुर्गा भास्वर

      वामपद असुर-स्कन्ध पर रहा दक्षिण हरि पर,

      ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्रा सज्जित,

     मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित,

     है दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,

      दक्षिण गणेश, कार्तिकेय बायें रण रंग राग,

      मस्तक पर शंकर। पादपदमों पर श्रद्धाभर

      श्रीराघव हुए प्रणत मन्दस्वर वन्दन कर।

      दुर्गा का यहां संपूर्ण वैविध्यपूर्ण देवी मंडल विद्यमान है। अंत में, पुरुषोत्तम राम की जय-जयकार करती हुई महाशक्ति राम के वंदन में लीन हो जाती है- जिसे महाकवि निराला जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है –

"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम !"

कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।

देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर

वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।

ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,

मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।

हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,

दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,

मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर

श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर।

“होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।”

कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।

            ‘पुरूषोत्तम नवीन’ की संज्ञा से दुर्गा राम को अवतारी पुरुष घोषित करती है। यह नौवां दिन दशमी को राम रावण का वध कर देते हैं। राम की शक्ति पूजा में निरालाजी ने निराशा के घनीभूत बिम्ब प्रस्तुत किए हैं आकाश अंधकार उगल रहा है, रावण खलबल अट्टहास कर रहा है, राम में पराजय की वेदना गहन है। इस नैराश्य की तुलना में राम को प्राप्त शक्ति प्रकाश की क्षीण रेखा के समान है। लेकिन प्रकाश का स्फुलिंग क्षीण ही क्यों न हो, वह भयानक अंधकार से लड़ने का जज्बा और हौंसला रखता है और अंततोगत्वा अंधकार को समाप्त कर देता है। इस तरह निराला जातीय-राष्ट्रीय भावना के अनुरूप असत्य पर सत्य की, अमंगल पर मंगल की और अशुभ पर शुभ की विजय दिखाकर भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों का प्रतिपादन करते हैं।

      राम की शक्ति पूजा अपने लघु कलेवर महा कायात्मक आत्मा समोए है। यहां बीच-बीच में बदलते हुए दृश्य ऐसे आते है जैसे किसी महाकाव्य में सर्ग आते हैं। महाकाव्य की तरह समबद्ध रचना न होते हुए भी इसकी कथा तथा विकास क्रम कहीं नहीं टूटता और न ही प्रबंध निर्वाह में कोई शैथिल्य दिखाई देता है। इस रचना की भाषा भावों के अनुरूप उदात्त और संस्कृतनिष्ठ है। शैली संवादात्मक और सामासिक छंद मौलिक, दृश्य तथा ध्वनि संश्लिष्ट और बिम्ब विधान सूक्ष्म और सघन है। निष्कर्षतः महाकवि निराला की राम की शक्ति पूजा एक उच्च कोटि की रचना है जिसमें महाकाव्यात्मक औदात्य अपनी पूरी गरिमा के साथ विद्यमान है। निश्चय ही हिंदी की यह एक उत्तम कृति है। 

आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

श्रीजगनाथ थाम काली मंदिर के पीछे

ग्वालटोली नर्मदापुरम मध्य प्रदेश, मोबाइल 9993376616

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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